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लॉकडाउन 42 00:17:51 लॉकडाउन 42 Video Duration : 00:17:51 पीस एजुकेशन प्रोग्राम की ओर अग्रसर (6 मई, 2020)

प्रेम रावत जी:

बड़ा सुंदर दृष्टांत है यह! तो द्रौपदी — कई नाम हैं द्रौपदी के। एक नाम नहीं है! पंचाली भी नाम है, कृष्णा भी नाम है। वह भी द्रौपदी का नाम है। क्योंकि वह — उसका रंग एकदम गोरा नहीं था। और कृष्णा का मतलब होता है, जिसका रंग गोरा न हो। थोड़ा-सा काला हो। कृष्णा का मतलब ही यह है। तो एक दिन की बात है कि द्रौपदी सुनती है कि कोई बहुत ही पहुंचा हुआ ऋषि आया है शहर में और वह फ्यूचर, भविष्य की सारी बातें बताता है।

तो वह जाना चाहती है और जानना चाहती है कि उसके भविष्य में क्या है ? तो वह गई, जहां ऋषि बैठे थे। और यह ऋषि, और कोई ऋषि नहीं थे, यह वेद व्यास थे। तो वह गई वहां। वेद व्यास ने कहा, ‘‘क्या चाहिए ?’’

कहा, ‘‘मेरे को मालूम करना है कि मेरे भविष्य में क्या होगा ?’’

कहा, ‘‘तुझे नहीं मालूम ? तू यहां क्यों पैदा हुई है ? तेरी वजह से लाखों औरतें विधवा होंगी। तेरी वजह से लड़ाई होगी। भयंकर युद्ध होगा।’’

द्रौपदी को बड़ा बुरा लगा, ‘‘मेरी वजह से होगा ?’’

कहा, ‘‘हां! तेरी वजह से होगा!’’

‘‘खून की नदियां बहेंगी! तेरी वजह से बहेंगी!’’

तब द्रौपदी बोलती है कि ‘‘इसका कोई — इसका कोई इलाज नहीं है ? यह बात पलटी नहीं जा सकती ? मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से विधवायें हों! मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से खून की नदी बहे! मैं नहीं चाहती कि मेरी वजह से यह घमासान युद्ध हो!’’

कहा, ‘‘नहीं, यह तो होना है! क्योंकि जिन-जिन राजाओं का बध होगा इस लड़ाई में, वह ठीक नहीं हैं, वह अच्छे नहीं हैं। उन्होंने बुरे के साथ, साथ दिया है। बुरे का साथ दिया है। तो इनका किसी न किसी तरीके से संहार जरूर होना है। इसीलिए तू पैदा हुई है।’’

तो वह कहती है, ‘‘नहीं! कोई इलाज तो जरूर होगा इसका!’’

तो वेद व्यास, जो इसका इलाज बताते हैं, वह मैं बताना चाहता हूं। कहानी का जो — यह तो कहानी है। पर जो इलाज है, तो वेद व्यास जी कहते हैं द्रौपदी से, ‘‘देख! अगर तू तीन चीजें कर पाए अपने जीवन में — तीन चीजें, तो यह युद्ध नहीं होगा।”

कहा, ‘‘क्या ?’’

कहा कि एक, किसी को ठेस मत पहुंचाना! 2017 — तब की बात, अब की बात! और यह बात जो मैं कह रहा हूं, यह महाभारत से पहले की है। उस युद्ध से पहले की है। क्योंकि अभी युद्ध हुआ नहीं है। अभी तो द्रौपदी द्रौपदी है। अभी तो द्रौपदी की शादी भी नहीं हुई है।

एक, किसी को ठेस मत पहुंचाना! और अगर तुमको कोई ठेस पहुंचाए तो बुरा मत मानना! एक तो तुम किसी को ठेस मत पहुंचाओ! और अगर तुमको कोई ठेस पहुंचाए तो बुरा मत मानना! और अगर बुरा मान भी जाओ तो बदले की भावना मत लाना! रिवेंज़! तीन चीजें! एक तो किसी को ठेस मत पहुंचाना! डॉन्ट अफेन्ड ऐनीवन!

इफ सम्बडी अफेन्डस यू — अगर कोई तुमको अफेन्ड करता है, कोई ठेस पहुंचाता है — डॉन्ट बी अफेन्ड। और ठेस पहुंच भी गयी तो फिर क्या करते हैं हम ? बदला लेंगे! नहीं ? और ये तीनों चीजें कर्म से और वचन से — न कर्म में, न वचन में किसी को ठेस पहुंचाना। और अगर कोई हमारे को पहुंचाता है ठेस — अफेन्ड करता है, डान्ट बी अफेन्डेड!

द्रौपदी बड़ी खुश हुई! “वाह! यह तो मैं कर सकती हूं। यह तो मैं कर सकती हूं।”

और वही चीज द्रौपदी के साथ हुई! जब इन्द्रप्रस्थ बना! बहुत ही सुंदर महल था। एकदम पॉलिस्ड मार्बल! तो कहीं पॉलिस्ड मार्बल है और कहीं पुल है पानी का। दुर्योधन को वह महल दिखाया जा रहा है।

द्रौपदी कहती है, ‘‘इधर से आओ!’’

वह देखता है चमकीला, कहता है, ‘‘नहीं! मैं इधर से आऊंगा!’’

और इधर से आता है तो वह पानी में गिर जाता है। उसने सुनी नहीं बात द्रौपदी की। द्रौपदी ने कहा, ‘‘इधर से आओ!’’

अब द्रौपदी के साथ तो पहले ही दुर्योधन खुंदक खाए हुए था। तो वह कहती है। मतलब, वो वाली बात हो गयी कि वह कहती है कि ‘‘बाएं मुड़ो’’ तो वह दाएं मुड़ेगा! तो उसने कहा, ‘‘इधर से आइए!’’

उसने कहा, ‘‘नहीं, मैं इधर से नहीं, इधर से आऊंगा!’’

वह गिर गया पानी में, वह हँस पड़ी। ‘‘किसी को ठेस मत पहुंचाओ!’’

दुर्योधन ने फिर द्रौपदी को अफेन्ड किया। उसको ठेस पहुंचाई! कैसे ? उसके कपड़े निकाल के। ठेस भी पहुंची उसको और दूसरी, सबसे बड़ी चीज उसने क्या की ? इसका मैं बदला लूंगी। और उस बदले में भीम ने कहा — दुःशासन! जब दुःशासन ने कहा, “यहां आकर बैठ!’’ कहा, ‘‘इसी टांग को मैं तोडूंगा — तेरा खून पीऊंगा।”

यही हुआ। तीन चीजें! कहानी तो है जो कहानी है! और कहानी सुनाने वाले तो बहुत हैं। पर इसमें जो मूल चीजें हैं, वो यह है कि हमारे जीवन के अंदर, यह जो हमारा समय है इस पृथ्वी पर, क्या हम इस जीवन को इस तरीके से जीएं, जो हमारे लिए भी सुखमय हो और दूसरे के लिए भी सुखमय हो! जिसमें हम दूसरे को ठेस न पहुंचाएं और दूसरा हमको ठेस न पहुंचाए। मतलब, सारा चक्कर तो यहीं खतम हो जाएगा। क्योंकि, अब लोग कहते हैं, ‘‘शांति! शांति चाहिए, शांति चाहिए!” कब कहते हैं ? जब अशांति उनको तंग करती है। उससे पहले कौन पूछता है शांति को ? शांति क्या है ? किसी को कहो कि तुमको शांति चाहिए ? तो वह कहेगा, ‘‘You are weird. दिमाग तो ठीक है तुम्हारा ?’’

देखो! तुम चाहे अपने को कितना भी बुद्धिमान समझो। तुम चाहे कितना ही अपने को बुद्धिमान समझो। और मैं यह नहीं कह रहा हूं कि तुम नहीं हो। हो! और चाहे कितना भी बुद्धिमान समझो, यह जितना भी तुम जानते हो, यह तुम्हारे दिमाग में डाला गया है। भगवान! छोटा बच्चा नहीं जानता कि भगवान क्या होता है। छोटा बच्चा नहीं जानता कि नरक क्या होता है। छोटा बच्चा नहीं जानता है कि स्वर्ग क्या होता है। छोटा बच्चा नहीं जानता है कि पाठ-पूजा करने से यह होगा। छोटा बच्चा तो यह भी नहीं जानता कि शांति क्या होती है। छोटा बच्चा यह भी नहीं जानता है कि अशांति क्या होती है। छोटा बच्चा नहीं जानता है कि देवी देवता क्या होते हैं। छोटा बच्चा नहीं जानता, कुछ नहीं जानता।

जैसे-जैसे हर एक दिन जाता है, बीतता है, बच्चा सीख रहा है, सीख रहा है, सीख रहा है, सीख रहा है, सीख रहा है। जब तुम बोलते हो, मां बोलती है कुछ बच्चे से या बाप बोलता है या और कोई बोलता है बच्चे से, उसको एक भी शब्द समझ में नहीं आ रहा है, वह सिर्फ आवाज सुन रहा है और कई बार वह चिल्लायेगा बिना बात के। वह सोच रहा है, वह भी बोल रहा है। वह सोच रहा है, वह भी बोल रहा है। परंतु वह तुमको समझ में नहीं आ रहा है, क्या कह रहा है।

धीरे-धीरे-धीरे-धीरे करके वह सीखेगा क्या ? माँ, पिता या बाप। धीरे-धीरे-धीरे-धीरे करके ये सारी चीजें उसके दिमाग में डाली जायेंगी। उसको एक — यह उसको नहीं मालूम एक क्या होता है। एक तो तुमको भी नहीं मालूम है क्या होता है। क्योंकि अगर तुमने कभी पूछने की कोशिश की हो, तो तुमको समझाने वाला कोई नहीं मिलेगा, एक क्या होता है, दो क्या होता है। वह तो तुमको सीखना पड़ता है। वह तो रटना पड़ता है। 1, 2, 3, 4, 4 क्यों ? और कुछ क्यों नहीं ? ना! सीखना पड़ेगा।

यह धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे-धीरे सारी चीजें हमारे दिमाग में डाली जाती हैं। पर कभी न कभी तुमको तो बैठ करके यह जानना चाहिए कि जो मेरे दिमाग में डाला गया है, जो मेरे दिमाग में डाला गया है, कितना वह मेरी भलाई के लिए है और कितना वह मेरे को हानि पहुंचाता है। कभी अकाउन्टिंग जिसे कहते हैं बेसिक अकाउन्टिंग कभी की है, जो तुम्हारे दिमाग में है, तुम उसको स्वीकार करते हो, बिना प्रश्न पूछे।

तुम्हारे हित की चीज क्या है और अनहित की चीज क्या है, यह तुमको मालूम होना चाहिए, जिस चीज को करने से तुम्हारा भला होगा। क्योंकि एक बात मैं कह रहा हूं कि इस जीवन के संघर्ष में, क्योंकि अभी संघर्ष बन गया है यह, हर दिन, हर दिन कुछ न कुछ करना है। कुछ न कुछ करना है। कुछ न कुछ करना है। कुछ न कुछ करना है। संघर्ष बन गया है। लड़ाई की तरह है — किसी दिन हार रहे हैं, किसी दिन थोड़ा-सा जीत रहे हैं। फिर हार रहे हैं, जीत रहे हैं। हार रहे हैं, जीत रहे हैं। परेशानी है।

अगर यह लड़ाई है इस जीवन के अंदर। तो सबसे पहली चीज किस पर जीत होनी चाहिए ? क्योंकि जो भी तुम्हारी समस्याएं हैं, तुम उनको जीतना चाहते हो। एक तरफ तो तुम हो, एक तरफ तुम्हारी समस्याएं हैं। सबसे पहली जीत किसकी होनी चाहिए ? किस पर होनी चाहिए ? किसकी होनी चाहिए और किस पर होनी चाहिए ? क्योंकि अगर तुमने अपने आपको नहीं जीता है, अगर तुमने अपने आपको नहीं जीता है, तो तुम किसी भी चीज पर जीत नहीं हासिल कर पाओगे। चाहे ऐसा लगे भी कि कर ली है, कर नहीं पाओगे। वह तुम्हारी नहीं है, क्योंकि तुम खुद ही अपने आपको हारे हुए हो।

तो सबसे पहली जीत जो हासिल करनी है इस जीवन के अंदर, वह अपने पर करनी है। वह अपने पर करनी है। विक्ट्री अपने पर होनी चाहिए सबसे पहले। और अपने पर अगर विक्ट्री नहीं हुई तो किसी चीज के ऊपर भी तुम जीत हासिल नहीं कर पाओगे।

लॉकडाउन 41 00:16:06 लॉकडाउन 41 Video Duration : 00:16:06 पीस एजुकेशन प्रोग्राम की ओर अग्रसर (5 मई, 2020)

Anchor Meenal: It is “Drive Pune” with Meenal and I’m your music jockey, MJ Meenal--and I’m going to be in conversation with the global Ambassador for Peace, Mr. Prem Rawat.

Prem Rawat: Thank you, Thank you for having me and my regards to your listeners.

Meenal: It's my honour to have you on the show today and you are the global Ambassador for Peace. Can you tell me what peace means to you?

ऐंकर मीनल : प्रेम जी! मुझे बताइए! एक इंसान अपनी जिंदगी में पीस कैसे प्राप्त कर सकता है ?

प्रेम रावत जी : सबसे बड़ी बात यही है कि हम जब शांति के बारे में सोचते हैं तो हम यही सोचते हैं कि कहीं और से आएगी हमको प्राप्त करना है।

ऐंकर मीनल : जी!

प्रेम रावत जी : सबसे बड़ी बात तो यह है और यही लोगों को बड़ी अचम्भे की बात भी लगती है, जब मैं लोगों से ये कहता हूं कि शांति तो पहले से ही आपके अंदर है। आपको कहीं खोजने की जरूरत नहीं है। आपको अपने आपको पहचानने की जरूरत है कि आप हैं कौन ?

‘‘सॉक्रटीज़ ने कहा था कि — Know thyself.’’ आज उसका मायने क्या है ?

आज मनुष्य हर एक चीज को जानने की कोशिश करता है, पर अपने आपको जानने की कोशिश नहीं कर रहा है। उसके सर्कल में बहुत सारे फ्रैण्ड्स हैं, ट्विटर में हैं, फेसबुक में हैं, व्हाट्सअप में हैं, परंतु उसमें क्या ऐसा भी कुछ है कि जिसमें वो इन्क्लुडेड है ? और अपने आपको समझने की कोशिश कर रहा है, अपने आपको जानने की कोशिश कर रहा है। अगर मनुष्य अपने आपको जानने की कोशिश करे तो उसको शांति अपने ही अंदर मिलेगी।

ऐंकर मीनल : क्या बात है!

प्रेम रावत जी : सबसे बड़ी बात यह है कि कबीरदास जी ने भी यही बात कही है कि — आत्मज्ञान — Self Knowledge — without knowing yourself —

आतमज्ञान बिना नर भटके, क्या मथुरा क्या काशी।

मृग नाभि में है कस्तूरी, बन बन फिरै उदासी।।

ऐंकर मीनल : क्या बात है! क्या बात है प्रेम!

लेकिन प्रेम, मुझे बताइएगा कि क्या आपको लगता है कि आजकल के कॉम्पटीटिव जमाने में कोई पीसफुल रह सकता है ?

प्रेम रावत जी : कॉम्पटीशन तो बाहर है। कॉम्पटीशन अंदर थोड़े ही है मनुष्य के ? जो कुछ भी वो करता है बाहर, जो कुछ भी वो रेस कर रहा है, जो कुछ भी वो दौड़ रहा है जिस चीज के पीछे, वो तो बाहर दौड़ रहा है और अपने से दूर दौड़ रहा है। और मैं जिस चीज की बात कर रहा हूं कि वो एक मिनट रुककर के यह भी सोचे कि ‘‘मैं अपनी तरफ कैसे दौड़ूं ? मैं अपनी तरफ कैसे आऊं ? मैं — जो मेरे अंदर पोटेंशियल है, जो मेरे अंदर चीज है, जो मेरे हृदय के अंदर जो चीज विराजमान है, उस तक मैं कैसे पहुंचूं ? क्योंकि वहां मेरे को शांति मिलेगी।’’ हम सोचते हैं कि जब हम सक्सेसफुल होंगे, तब हमको शांति मिलेगी। पर सक्सेस की जो सीढ़ी है, वह कुछ ऐसी है कि —

कोई कहता है कि ‘‘भाई! दो सीढ़ी चढ़ो, तब आप सक्सेसफुल हो जाओगे।’’

जब आप दो सीढ़ी चढ़ते हैं तो कहते हैं, ‘‘नहीं! दो और चढ़नी पड़ेंगी।’’ और जब दो और चढ़ते हैं, तो कहते हैं, ‘‘नहीं, दो और चढ़नी पड़ेगी।’’

तो चढ़ते ही चले जाते हैं, परंतु ये कभी नहीं सोचते हैं कि क्या सक्सेस हमको मिला है या नहीं ? या सक्सेस हमारे अंदर पहले से ही है। जिस चीज को हम बाहर ढूंढ़ रहे हैं, वो हमारे अंदर है। इसका यह मतलब नहीं है कि हमको बाहर सक्सेसफुल नहीं होना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे सिर के ऊपर छत नहीं होना चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे बच्चों को भूखा मरना चाहिए। नहीं! ये मतलब नहीं है। पर अगर आपको शांति भी चाहिए अपनी जिंदगी के अंदर तो ये बाहर जो कुछ भी हम करते हैं, ये भी कीजिए और अंर्तमुख होकर के आप अपने आपके अंदर जो चीज है, उसको भी महसूस कीजिए।

ऐंकर मीनल : प्रेम! मुझे बताइए, किसी भी टाइटिल के साथ एक प्रेशर आ जाता है। आपको भी एक टाइटिल दिया गया है। यू आर ‘द ब्रांड एम्बेसडर ऑफ पीस!’ क्या इस टाइटिल के साथ आपको पीस मिलती है ?

प्रेम रावत जी : देखिए! मैं सभी से एक ही बात कहता हूं कि हर एक मनुष्य, जो इस संसार में है, Every human being, they are all global Peace Ambassadors. सभी के सभी शांतिदूत हैं। हमको यह समझना चाहिए और इस चीज के साथ जो जिम्मेदारी आती है, वो सिर्फ यह है कि हम अपने आपको समझें कि हम कौन हैं। बाहर जो हो रहा है, हो रहा है।

देखिए! जब आप नौका में बैठते हैं तो आप क्या चाहते हैं कि समुद्र सूख जाए ? अगर समुद्र सूख गया तो फिर नौका में बैठने का मतलब क्या हुआ ?

आप यह चाहते हैं कि नौका के नीचे पानी रहे, परंतु नौका के अंदर पानी न आए। तो जो यह डिस्टिंक्शन है, यह सबसे बड़ी चीज है। हम जो बाहर है, जो होगा बाहर, जो प्रेशर है, जो कुछ है, अगर इनसे हम निपटना चाहते हैं अपनी जिंदगी के अंदर तो उसके लिए कुछ और करना पड़ेगा। अगर हम अपने आपको समझना चाहते हैं अपनी जिंदगी के अंदर तो उसके लिए कुछ और करना पड़ेगा। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसके साथ प्रेशर नहीं आता है, इसके साथ प्रिविलेज आता है। और हर एक मनुष्य जो है इस संसार के अंदर, Everybody is fortunate! सभी किस्मत वाले हैं। जैसे कहा है कि —

भीखा भूखा कोई नहीं, सबकी गठरी लाल।

गठरी खोलना भूल गए, इस विधि भए कंगाल।।

तो सबसे पास है, परंतु सब खोल नहीं पाते हैं अपनी गठरी को और गठरी को अगर खोलें तो सभी को पता लगेगा कि उनके पास कितनी मूल्यवान चीज है।

ऐंकर मीनल : I always think Prem that whenever we start questioning our passion, talking something about very passionately, it is generally from some sort of experience that has happened with us in life. Is that the same case with you?

क्या आपके साथ भी कोई ऐसा किस्सा हुआ है, जिसकी वजह से आप peace में इतना believe करते हैं ?

प्रेम रावत जी : देखिए! When I was 4 years old, जब मैं चार साल का था तो मैं इस शांति के बारे में लोगों को संबोधित करता था। और जब मैं 9 साल का था तो मेरे पिताजी गुजर गए, उसके बाद मैंने जो वो कर रहे थे, उसकी मैंने बागडोर संभाली। और जब मैं 13 साल का था तो मैं विदेश गया। और मैं इस चीज के बारे में तब से लोगों को संबोधित कर रहा हूं कि —

भाई! जिस चीज की तुमको जरूरत है असली में, वो तुम्हारे अंदर है। शांति को जानो, शांति को पहचानो शांति क्या है।

शांति अलादीन का लैंप नहीं है कि आपको कोई चीज चाहिए तो आप शांति के लैंप को रगड़ेंगे और उसका जिन्न आएगा, जिसे आप कहेंगे कि ‘‘शांति चाहिए!’’ तो बात यह है कि शांति का संदेश — ये ढोल, बहुत सदियों से हमारे साथ चल रहा है। अब चाहे आप राम के जमाने की बात करें, चाहे आप कृष्ण के जमाने की बात करें, चाहे आप किसी भी संत या महात्मा के समय की बात करें तो सभी ने यही संबोधित किया है हमको कि — भाई! जिस चीज की तुमको जरूरत है, वो तुम्हारे अंदर है। उस चीज को जानो, उस चीज को पहचानो तो तुम्हारे जीवन में शांति आएगी। तुम्हारा जीवन सुधर जाएगा। तो यह तो बहुत प्राचीन काल से बात चलती आ रही है। और इसके लिए ट्रेजडी होने की जरूरत नहीं है। मतलब, यह नहीं है कि इसका पैशन ट्रेजडी से आता है। इसका पैशन हर एक मनुष्य के अंदर है।

क्योंकि देखिए! आपको किसी बच्चे को ये सिखाने की जरूरत नहीं है कि तुम भूख कैसे लगाओ! वो तो स्वयं उसके अंदर लगती है। बच्चे को ये सिखाने की जरूरत नहीं है कि तुम कैसे खाओ! उसको मालूम है कि उसको मुंह में डालना है, जो कुछ डालना है। तो ठीक इसी प्रकार से कुछ ऐसी चीजें हैं, जो हमारे लिए innate हैं, जो fundamental हैं। जो एकदम से शुरुआत से ही हमारे साथ हैं। और वह चीज है — इस शांति की प्यास! और इस शांति के लिए excitement और इस शांति के लिए thirst!

ऐंकर मीनल : Prem please tell us a little bit about the Prem Rawat Foundation?

प्रेम रावत जी : कुछ साल पहले we realized the need. देखिए! इस संसार के अंदर billions of dollars खर्च हो रहे हैं और लोग देते हैं। क्योंकि लोगों में अच्छाई है, लोग देते हैं और लोग चाहते हैं कि और लोगों का भी भला हो। परंतु हो क्या रहा है कि ये जो — इतनी सारी charities हैं, फिर भी लोग भूखे जा रहे हैं। इतना पैसा इकट्ठा होता है खाने के नाम पर, फिर भी लोग भूखे जा रहे हैं। तो हमने देखा कि ऐसा क्यों हो रहा है ? तो जब हमने ये देखा तो एक तो यह कि लोगों को जब खाना दिया जाता है तो कुछ इस प्रकार से दिया जाता है कि वो उसको ढंग से खा भी नहीं सकते हैं, क्योंकि ये उनका — उस खाने के वो आदी नहीं हैं। They are not used to that food.

So, मैं एक दिन रांची में था। रांची के बाहर एक गुमला डिस्ट्रिक में एक जगह है, तो वहां मैंने देखा कि बच्चे इतने बेचारे भूखे थे और उनका इतना बुरा हाल था कि मैंने किसी से कहा कि, ‘‘भाई! ये ऐसा क्यों है ?’’ क्योंकि मेरे को मालूम था कि बहुत सारे NGOs आसपास हैं। तो उन्होंने कहा, ‘‘जी! यहां तो इतनी खराब हालत है कि बच्चे चूहे के घोंसले से खाना चुराकर खाते हैं।’’

ऐंकर मीनल : बाप रे!

प्रेम रावत जी : इतनी बुरी हालत थी। तो हमने वहां एक Food for people, जन-भोजन की व्यवस्था की। बहुत सुंदर हॉल बनाया और उस हॉल के अंदर साफ-सुथरा — साफ-सुथरा खाना। और सबसे बड़ी चीज कि हमने वहां जो बच्चे आते थे खाने के लिए, उनको ये सिखाया कि ‘‘भाई! खाने से पहले हाथ धोओ!’’ अब उसके ये आदी नहीं थे। तो जब धीरे-धीरे उन्होंने सीखना शुरू किया तो उनकी — उनके स्वास्थ्य में भी बहुत परिवर्तन आया है। उनको खाना भी वो मिलता है, जिसके वो आदी हैं तो खूब डट के खाते हैं।

और सारी कम्यूनिटी में हुआ क्या ?

क्योंकि एक समय का खाना उस परिवार को बनाना नहीं पड़ता है तो पैसे बचने लगे। तो area में चोरी कम हुई। क्राइम कम हुआ। क्योंकि बच्चों को ये नहीं था कि खाना कहां से आएगा, क्योंकि परिवार उनका सप्लाई नहीं कर पाता था कई बार तो उनका स्वास्थ्य अच्छा होने लगा और पहली बार वो बच्चे ग्रैजुएट होकर के हाई स्कूल गए और हाई स्कूल ग्रेजुएट होकर के यूनिवर्सिटी में गए। पहली बार। पहली बार! ऐंकर मीनल : Wow! that’s amazing, that’s amazing. काफी कमेंडेबल है यह।

Splitting the Arrow, Understanding the business of life — प्रेम! आपने इस बुक में लाइफ को ‘बिज़नेस’ कहा है। यह कैसे हुआ ?

प्रेम रावत जी : नहीं। लाइफ बिज़नेस नहीं है। बिज़नेस ऑफ लाइफ! क्योंकि जो हम — देखिए! एक सबसे बड़ी बात यह है कि हम सौदा कर रहे हैं। अपने जीवन के साथ सौदा कर रहे हैं। जो चीज बहुत ही मूल्यवान है — हर एक स्वांस जो हमारे अंदर आता-जाता है, इसको हम न्योछावर कर रहे हैं उन चीजों के लिए, जिसके बारे में हम अपने सपने बनाते हैं।

ऐंकर मीनल : जी!

प्रेम रावत जी : एक समय आएगा कि ये स्वांस चलता नहीं रहेगा। और फिर क्या करेंगे ? क्योंकि दुनिया तो चलती रहेगी। तो यह जो बिज़नेस हम कर रहे हैं, इस बिज़नेस को बदलने की जरूरत है। और वह बिज़नेस करना चाहिए, जिसमें सचमुच में हमको मुनाफा हो। और कहां का मुनाफा हो ?

सिर्फ मन का ही मुनाफा नहीं, पर हृदय का भी मुनाफा हो। हमारे जीवन के अंदर यह महसूस होना चाहिए कि — I am thankful कि मैं अपने जीवन के बारे में एक चीज जानता हूं कि यह जो जीवन मेरे को मिला है, वह मूल्यवान है और जिसने भी ये मेरे को जीवन दिया, उस शक्ति को मैं नमन करता हूं, उसका मैं thank you अदा करता हूं, धन्यवाद अदा करता हूं। क्योंकि इससे मूल्यवान चीज मेरे पास कोई नहीं है। तो इस बिज़नेस में अगर लग जाएं थोड़ा-सा तो इतना मुनाफा होगा, इतना मुनाफा होगा, इतना मुनाफा होगा — काहे का ?

आनंद का, सुख का, चैन का और शांति का!

ऐंकर मीनल : मुझे बताइए! आपकी जो पैशन्स हैं, क्या-क्या मदद करते हैं आपको पीसफुल रहने में ?

प्रेम रावत जी : So, देखिए न! यह वो वाली बात है कि जैसे कि कमल का फूल गंदे पानी में रहता है, परंतु कमल का फूल गंदा नहीं होता है। और वह अपना separation बनाकर रखता है कमल का फूल और उसकी जो जड़ हैं, वह भले ही गंदे पानी में हो, पर वह कमल का फूल गंदा नहीं लगता है। वह सुंदर लगता है।

ऐंकर मीनल : जी बिलकुल!

प्रेम रावत जी : ठीक इसी तरीके से इस दुनिया के अंदर जो होगा, वो होगा। बात उसकी नहीं है। क्योंकि जो समस्याएं हमारे सामने आती हैं — जो समस्याएं, जिनका हम सामना करते हैं, वो पहले किसी और को सता रहीं थीं। ये तो वो वाली मक्खियां हैं, पहले किसी और को तंग कर रही थीं, अब हमारे पास आ गई हैं और हमारे बाद किसी और को तंग करेंगी।

क्योंकि समस्याएं तो वही हैं। क्योंकि हम समझते हैं कि — नहीं, हमारे पास नई टेक्नोलोजी है तो हमारी नई समस्या होगी। नहीं! समस्याएं वही हैं, चाहे आपका फोन नहीं चल रहा है या आपका टेलीविज़न नहीं चल रहा है या आपकी गाड़ी नहीं चल रही है या आपका घोड़ा नहीं चल रहा है, या आपका गदहा नहीं चल रहा है, या उससे पहले आपका छत नहीं है आपके घर में। तो कुछ न कुछ, कुछ न कुछ जो नहीं हो रहा है, ये तो हमेशा होते ही आया है।

परंतु आपको एक मौका मिला है और आप जिंदा हैं। और इसका मतलब, आपके लिए क्या है ? मतलब, सबसे बड़ा सवाल यह होता है कि आपके लिए क्या महत्व रखता है कि आपके अंदर यह स्वांस आ रहा है और जा रहा है ?

ऐंकर मीनल : Right! Right! Absolutely.

ऐंकर मीनल : जाने से पहले हमारे listeners को कोई message देना चाहेंगे ?

प्रेम रावत जी : मेरा तो एक ही message है सबके लिए कि यह आपके पास एक मौका है। यह आपकी जिंदगी है। फिर मिले, न मिले। फिर आप जिसको जानते हैं, उनको मिलें, न मिलें। परंतु जो है आपके जीवन में, इसको आप समझिए, इसका पूरा-पूरा फायदा उठाइए। यह स्वांस आपके अंदर आ रहा है, जा रहा है, शांति आपके अंदर है, आपकी अच्छाइयां आपके अंदर हैं। आप जहां भी जाते हैं, अपना क्रोध भी साथ लेकर जाते हैं, परंतु जहां क्रोध जाता है, वहां करुणा भी जाती है।

एक बात याद रखिए कि सिक्के का एक ही हिस्सा नहीं हो सकता है। उसके दो हिस्से हैं। चाहे अगर उस सिक्के को आप बीच में से काट भी दें, तब भी उसके दो हिस्से रहेंगे। और सबसे बड़ी बात है कि जहां — अगर मनुष्य के अंदर — उसके अंदर जो बुराइयां हैं, उस हर एक बुराई के लिए उसके अंदर अच्छाई भी है। अगर आपके जीवन में अंधेरा है, तो एक बात याद रखिए कि उजाला भी दूर नहीं है। अगर आप उजाला लाना चाहते हैं अपनी जिंदगी के अंदर तो आपको अंधेरा हटाने की जरूरत नहीं है, सिर्फ उस उजाले को लाने की जरूरत है और जब वो उजाला आएगा तो अंधेरा अपने आप भाग जाएगा।

ऐंकर मीनल : क्या बात है!

And with those words प्रेम! Thank you so much for being on 94.3 रेडियो वन।

प्रेम रावत जी : My pleasure! and सभी आपके श्रोताओं को मैं शुभकामना देना चाहता हूं।

ऐंकर मीनल : Thank you so much. Have a great evening!

लॉकडाउन 40 00:23:16 लॉकडाउन 40 Video Duration : 00:23:16 प्रेम रावत जी द्वारा हिंदी में सम्बोधित (2 मई, 2020)

प्रेम रावत जी:

सभी श्रोताओं को हमारा नमस्कार!

यह हिंदी की जो ब्रॉडकास्ट है, यह 40वीं ब्रॉडकास्ट है और हर दिन हम अंग्रेजी और हिंदी की ब्रॉडकास्ट करते आये हैं तो यह 80 ब्रॉडकास्ट हो गई हैं कुल मिलाकर। और हमने यही भाव प्रकट करना चाहा कि एक तो इन परिस्थितियों को देखते हुए यही हम सब लोगों को कहना चाहते थे कि "भाई डरने की कोई बात नहीं है जो तुम्हारे अंदर, जो सचमुच आत्मबल है इसको इस्तेमाल करना इस समय कितना जरूरी है।" क्योंकि लोग तरह-तरह की बातें करते हैं और शुरू से ही हम इन बातों को लेकर के बैठ जाते हैं। अपने दिमाग में इन बातों को आने देते हैं यह नहीं हम कभी कहते हैं "भाई! यह क्यों कह रहे हो या क्या प्रमाण है तुम्हारे पास!" प्रमाण नहीं मांगते हैं, जैसे किसी ने कह दिया, वैसे ही हम स्वीकार कर लेते हैं।

ठीक है! कोई मज़ाक की बात हो, कोई चुटकुला हो, कोई मज़ाक कर रहा हो या किसी ने कोई बात कह दी, ज्यादा बातों का असर नहीं पड़ता है, परन्तु कुछ बात होती हैं जिनका बहुत ज्यादा असर पड़ता है और वह ऐसा घर कर लेते हैं हमारे अंदर फिर उससे भय पैदा होता है और मनुष्य यह जानने की कोशिश करता है कि क्या हो रहा है, क्योंकि भय में सबसे पहले भय में क्या होता है! अब जब कमरे के अंदर बत्ती जली हुई है और सबकुछ प्रकाश में है, तो कोई अगर आवाज भी हो तो आदमी उस तरफ देखेगा "क्या है" और अगर कुछ नहीं दिखाई देगा तो उसको तसल्ली हो जाएगी। परन्तु वही बात अगर अँधेरे कमरे में हो, कमरा अंधेरा है, कमरे में और कुछ नहीं दिखाई देता है और कोई आवाज हो तो मनुष्य को यह लगेगा, जो आदमी वहां बैठा हुआ है, उसको यह लगेगा कि "क्या थी, क्या चीज थी, किसने आवाज की!" क्योंकि वह देख नहीं पाता है तो डर और बढ़ता है। तो डर एक ऐसी चीज है कि मनुष्य को अंधा बना देती है। जब वह अँधा बन जाता है डर से तो वह कुछ भी कर देगा, कुछ भी अपने दिमाग में ले आएगा, किसी भी बात को समझ लेगा, किसी भी बात को वह सच स्वीकार कर लेगा, चाहे वह सच हो या न हो।

अब कई लोग हैं जो यह कहते हैं कि "भाई! तुम ऐसा नहीं करोगे, ऐसा नहीं करोगे, ऐसा नहीं करोगे, तो नरक जाओगे।" नरक की बात करते हैं और फिर बात करते हैं कि "तुम ऐसा करोगे, ऐसा करोगे तो स्वर्ग जाओगे।" तो नरक से लोगों को डराते हैं और थोड़ी-बहुत जो रिश्वत की तरह ही समझ लीजिये कि स्वर्ग की बात करते हैं कि "तुम ऐसा करोगे, ऐसा करोगे तो स्वर्ग जाओगे!" पर सबसे बड़ा स्वर्ग और सबसे बड़ा नरक यहां है, इस पृथ्वी पर है।

लोग कितने परेशान हो रहे हैं इस समय, नरक है उनके लिए। कई लोग हैं जो अपने घर भी नहीं जा सकते। बेचारों के लिए खाने के लिए कुछ नहीं है, रहने के लिए कोई जगह नहीं है, गर्मी पड़ रही है, जो कुछ भी है, उनके लिए कुछ भी नहीं है, तो इससे बड़ा नरक क्या हो सकता है। और यहां स्वर्ग भी है, जो अपने अंदर इस बात को समझ ले कि उसके अंदर क्या विराजमान है, उसकी जिंदगी क्या है, तो जिसने यह जान लिया, जिसने यह पहचान लिया उसके लिए स्वर्ग ही स्वर्ग है। क्योंकि जिस मनुष्य ने यह जान लिया कि यह सिर्फ मैं यहां किसी एक्सीडेंट की वजह से नहीं हूं, पर यहां मैं हूं और जो यहां हूं मैं कुछ कर सकता हूं। मैं अपने जीवन को सफल बना सकता हूं। मैं अपने हृदय को आभार से भर सकता हूं। मैं इस जीवन का असली आनंद जो हृदय से लिया जाता है, जो एक ऐसी चीज को जानकर लिया जाता है जो तुम्हारे अंदर विराजमान है, जिसको "सच्चिदानंद" कहते हैं, जिसको "परमानंद" कहते हैं वह तुम्हारे अंदर है और जब तुम उसको जान जाओगे, जब उसको तुम पहचान जाओगे तो तुम्हारे लिए स्वर्ग ही स्वर्ग है।

क्योंकि फिर यह सारी चिंताएं जो हैं, जो यह आवाजें आ रही हैं — यह आ तो रही हैं, यह तो बंद नहीं होंगी, परन्तु बत्ती जली हुई है जहां से भी आवाज आ रही है, मनुष्य देख सकता है "कहां से आ रही है, क्या है इसका तुक, कोई तुक नहीं है, कुछ भी नहीं है या यह थी या यहां से आई, इसलिए आई" यह बात स्पष्ट हो जाती है तो फिर मनुष्य को डरने की जरूरत नहीं है, फिर मनुष्य को भटकने की जरूरत नहीं है। अभी तो मनुष्य भटक रहा है — अब लोग यह बात कहते हैं कि “जिसने जाना नहीं वह भटक रहा है”, परन्तु भटकने का मतलब क्या हुआ ? कैसे भटक रहा है ? तो कैसे भटक रहा है वह — बाहर से भले ही ना भटक रहा हो, यह नहीं कि बाहर कहीं इधर जा रहा है, उधर जा रहा है। वैसे तो बहुत लोग हैं जो इधर जा रहे हैं, उधर जा रहे हैं। परन्तु अंदर का भी भटकना होता है उसको यह नहीं मालूम है, उसको सूझ नहीं रहा है कि —

घट अंधियार नैन नहि सूझें,

ज्ञान का दीपक जलाय दीजो रे।

गुरु पैंया लागू  नाम लखाय दीजो रे।।

पहले ही इस बात के लिए कहा है कि —

घट अंधियार नैन नहि सूझें।

दिखाई नहीं दे रहा है कि क्या है!

ज्ञान का दीपक जलाय दीजो रे।

गुरु पैंया लागू नाम लखाय दीजो रे

गहरी नदिया, अगम भये धरवा।।

खैई के पार, लगाय दीजो रे।

गुरु पैंया लागू नाम लखाय दीजो रे।।

क्या इसमें भाव है कि मेरे साथ क्या हो रहा है कि इस नदी में, इस भवसागर की नदी में बहुत — "अगम भये धरवा" — बहुत तेजी से धार चल रही है। अब तेजी से धार चल रही है, उसका अभिप्राय क्या हुआ कि मैं उसमें बह जाऊँगा, इतनी तीव्र तरीके से चल रही है वह कि मैं उसमें तैर नहीं सकता, डूब जाऊँगा, मुझे वह ले जायेगी। तो क्या हम कभी अपने जीवन में सोचते हैं — जब हम चलते हैं अपने घर से, किसी भी काम के लिए चलते हैं, तो क्या हम सोचते हैं कि इस नदी में पैर रख रहे हैं, इस भवसागर की नदी में पैर रख रहे हैं और यह बहुत गहरी है और इसमें धार भी बहुत तीव्र चल रही है। और मेरे को खेकर के पार कर दो। मैं इसमें तैर नहीं सकता।

समझने की बात है भटक तो रहे हैं हम, पर अंदर भटक रहे हैं। समझ में नहीं आता है "क्यों हैं हम यहां!" अब ख्याल भी नहीं आता है लोगों को, ख्याल भी नहीं आता है। मैं किसी को डराने की बात नहीं कर रहा हूं। क्योंकि हमारा किसी धर्म से लेना-देना नहीं है। मैं धर्म की बात नहीं कर रहा हूं। हम तो स्वर्ग की बात करते हैं तो हम कहते हैं स्वर्ग भी यहां है। नरक की बात करते हैं तो कहते हैं नरक भी यहां है। और अगर तुम उस नरक से छुटकारा पाना चाहते हो तो उसकी भी विधि तुम्हारे पास है, उसकी भी विधि संभव है और अगर तुम स्वर्ग में जाना चाहते हो तो वह भी संभव है वह भी तुम्हारे अंदर है, परंतु कभी हम यह सोचते नहीं हैं। यह सारी चीजें कोई बताता है तो बड़ी अच्छी लगती है "हां जी! स्वर्ग जाना चाहते हो ? हां जी! जाना चाहते हैं!" परन्तु स्वर्ग में हम क्यों नहीं हैं, उस स्वर्ग का एहसास क्यों नहीं कर रहे हैं ? क्यों नहीं कर रहे हैं, क्योंकि हम भटक रहे हैं। कभी किधर जाते हैं, कभी किधर जाते हैं, कभी किसी से पूछते हैं यह तो — अगर मैं यह आपसे कहूं कि "आप भिखारी हैं" तो आप कहेंगें "नहीं! हम भिखारी नहीं हैं। हमारे पास तो पैसा है!" पर आप भिखारी हैं, कैसे भिखारी हैं ? मैं बताता हूँ आपको।

आप अपने बच्चों से भीख मांगते हैं। बच्चे आपसे भीख मांगते हैं, आप बच्चों से भीख मांगते हैं। किसकी भीख मांगते हैं, किस चीज की भीख मांगते हैं "मेरा नाम रोशन करना, अच्छा बच्चा बनना, सफल होना इस जिंदगी के अंदर, पढ़ाई-लिखाई बड़े प्रेम से करना ताकि तू बड़ा राजा, मेरा राजा बेटा बन सके" यह भीख मांगते हैं। बीवी से भीख मांगते हो क्या कि "सब कुशल-मंगल रहे, आनंद से रहे!" पत्नी तुमसे भीख मांगती है क्या भीख है वह कि "सब कुशल-मंगल रहे, तुम अपनी नौकरी अच्छी तरीके से करो, तुम कहीं भटको ना, सब ठीक रहे" यह वह मांगती है। बड़े-बड़े नेता जब इलेक्शन का टाइम आता है तो नागरिकों से भीख मांगते हैं, जब अपना काम करना होता है तो नागरिक बड़े-बड़े नेताओं से भीख मांगते हैं। भीख सब मांग रहे हैं, एक-दूसरे से मांग रहे हैं, पर घमंड इतना है कि कोई इस बात को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि "हां हम मांग रहे हैं।"

अब जो उस बनाने वाले से भीख मांगे वह तो मैं समझ सकता हूं। जो दानी है उससे, जो असली दानी है, जो असल में कुछ दान भी कर सकता है जिससे कि हमारा भला हो, तो ऐसे से दान मांगना कोई खराब बात नहीं है। ऐसे से भीख मांगना कोई खराब बात नहीं है। परन्तु ऐसी चीज से भीख मांगना, जो अगर भीख भी दे उससे हमारा भला नहीं होगा। तो यह क्या माँगना हुआ ? यह कैसे माँगना हुआ ? इसका क्या तुक बनता है! परन्तु यही हम मांगते-फिरते हैं। देने की क्षमता होनी चाहिए, पर क्या दे सकते हैं आप! एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को क्या दे सकता है ? एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को अपना प्यार दे सकता है, इज्जत दे सकता है, उसकी बात समझ सकता है, उसकी बात सुन सकता है, यह भी तो उपहार हैं और यह तो हम किसी से मांगते भी नहीं हैं, परंतु यह किसी को देना कितनी अच्छी बात है और लेने वाले के लिए भी बड़ी सुन्दर बात है और देने वाले के लिए भी सुंदर बात है।

देखिये कुछ चीजें होती हैं संसार के अंदर जैसे, पैसा — जितना आप देंगे लोगों को उतना ही आपका कम होगा। जितना आप देंगे उतना ही आपका कम होगा। परंतु कुछ ऐसी चीजें होती है जितना आप देंगे उतना ही बढ़ेगा। "प्यार" एक ऐसी चीज है कि जितना आप देंगे वह और बढ़ेगा। इज्जत एक ऐसी चीज है कि जितनी आप देंगे वह और बढ़ेगी, आनंद एक ऐसी चीज है (जो परमानंद की बात कर रहा हूं, सच्चिदानंद की बात कर रहा हूं, उसकी चर्चा की बात कर रहा हूं) जितना आप देंगे वह और बढ़ेगा। पर इस माया का क्या कानून है कि जितना आप देंगे उतना ही आपका कम होगा। उतना ही आपका कम होगा। किसी को कपड़े देंगें उतने ही कपड़े आपके कम होंगें। जूते देंगें, उतने ही जूते आपके कम होंगे। आप यह जो सारी चीजें हैं जितना देंगे उतना ही कम होगा और वह जो चीज है, जो अंदर की चीज है वह जितना देंगें वह उतना बढ़ेगा।

यह अगर समझ में आ गयी बात, तो इससे कितनी चीजें पलट सकती हैं हमारे लिए। जहां नरक था वहां स्वर्ग बन सकता है। अब लोग हैं लग जाते हैं "अब यह क्या हो रहा है, क्या हो रहा है" छोटी-सी भी बात होती है तो उससे घबरा जाते हैं। "मेरे को कोई पसंद नहीं करता है, मेरे को कोई नहीं पूछता है, सब मेरे से नफरत कर रहे हैं!" तुमको कैसे मालूम! तुम अंतर्यामी कब से बन गए! तुम अंतर्यामी कब से बन गए! तुमको क्या मालूम कि वह क्या सोच रहा है! तुम बैठे-बैठे उसके लिए सोच रहे हो और वह क्या सोच रहा है तुमको क्या मालूम। वह सोच रहा है कि उसके पैसे कैसे बढ़ेंगे, वह सोच रहा है अपनी गर्लफ्रेंड के बारे में, अपने बॉयफ्रेंड के बारे में। तुम्हारे बारे में कौन सोच रहा है! तुम ही सोच रहे हो। पर लोगों को — बत्ती बुझी हुई है और "यह मन भाग रहा है, भाग रहा है, भाग रहा है, कभी किधर की तरफ जाता है, कभी किधर की तरफ जाता है, अब यह हो जाएगा, वह हो जाएगा, मैं कहीं की नहीं रहूंगी, मैं कहीं का नहीं रहूंगा, ऐसा हो जायेगा मेरा!" यह सारी वही बातें हैं, "बैठे-बैठे सबकुछ पकता रहता है, पकता रहता है, पकता रहता है, पकता रहता है, पकता रहता है।"

अब वही बीरबल की बात मेरे को बार-बार याद आती है। एक बार अकबर ने बीरबल से कहा कि "बीरबल मुझे पांच बेवकूफ लोग लाओ।"

बीरबल ने कहा — "जहाँपनाह! खोजना पड़ेगा पता नहीं कहां मिलेंगे!"

कहा — "नहीं! मेरे को पांच बेवकूफ लोग चाहिए।"

तो बीरबल ने कहा, "अजीब-अजीब बातें करते रहते हैं बादशाह! पर उनका आदेश है कि पांच बेवकूफ आदमी लाने हैं तो मैं जाता हूं, खोजता हूं।"

तो एक आदमी देखा (कहाँ खोजूं मैं तो बीरबल जा ही रहा था रोड पर) — तो देखा एक आदमी पैर ऐसे हिला रहा, जमीन पर लेटा हुआ। गड्ढे में गिरा हुआ, लेटा हुआ और पैर ऐसे-ऐसे हिला रहा और हाथ ऐसे रखा हुआ। हाथ ऐसे रखा हुआ (दोनों हाथ)।

तो बीरबल उसके पास गया, "भाई! तू कर क्या रहा है ?"

कहा, "जी मैं घर से चला था मेरी बीवी ने कहा था कि खिड़की के लिए, हमारी जो खिड़की है घर में उसके लिए पर्दा लाना है, उसके लिए कपड़ा लाना है। और वह खिड़की इतनी चौड़ी है तो अब मैं उठ नहीं सकता हूं, मैं गिर गया अब उठ नहीं सकता हूं। क्योंकि यह जो नाप है अगर मैं इधर-उधर करूं तो यह इधर-उधर हो जाएगा तो इसलिए नाप को तो मैंने यहीं का यही रखा हुआ है और मैं उठने की कोशिश कर रहा हूं, इसलिए मेरे पैर चल रहे हैं।"

बीरबल ने कहा — "ठीक है! एक, पहला वाला बेवकूफ आदमी तो मिल गया।"

दूसरा खोज रहा है, कहाँ मिलेगा! पहले वाले को तो उसने कहा कि "भाई! कल आना मेरे पास, मैं तेरे से बात करना चाहता हूं।"

दूसरा वाला खोज ही रहा था बीरबल, इधर देखा कि एक आदमी अपने गधे पर आ रहा है और बड़ा सा बोझ (जो गधे पर होना चाहिए) वह उसने अपने सिर पर रखा हुआ है और खुद गधे पर बैठा हुआ है।

उसने कहा, "भैया! तू क्या कर रहा है ?"

कहा, "जी! मेरे को मेरे गधे से बहुत प्रेम है और मैं नहीं चाहता हूँ कि यह जो बोझ मैं उठाऊं, यह गधे पर हो, क्योंकि मेरा प्रेम है गधे से तो मैं उठा रहा हूँ उसका बोझ।"

तो बीरबल ने कहा, "यह दूसरा बेवकूफ मिल गया!"

क्योंकि वह गधे पर भी बैठा है और उसने अपने सिर पर बोझ लिया हुआ है, तो गधे को तो उतना ही बोझ होगा। उसका भी और जो उसने सिर पर लिया हुआ है। पर वह सोच रहा है कि नहीं होगा।

तो शाम का टाइम हो गया था, अंधेरा भी होने लगा तब बीरबल ने कहा "अब कहां खोजूं मैं!"

तो देखा एक आदमी एक लाइट थी (जो सड़क के किनारे लाइट होती हैं) उसके नीचे वह कुछ खोज रहा है।

तो उसने कहा, "भाई! क्या कर रहे हो?"

कहा, "जी! मैं अंगूठी खोज रहा हूँ।”

कहा, "कब खोयी अंगूठी, कहाँ खोयी अंगूठी ?"

कहा, "मैं जंगल गया था आज और जंगल में अंगूठी खो गयी मेरी।”

बीरबल ने कहा "जंगल में खो गयी है तो जंगल में खोजो, यहाँ क्या खोज रहे हो!"

कहा, "जंगल में लाइट थोड़ी है यहां लाइट है, इसलिए मैं यहां खोज रहा हूं।"

तो बीरबल ने कहा — "ठीक है! यह तीसरा बेवकूफ भी मेरे को मिल गया।"

पांच बेवकूफ की बात थी। हंसता हुआ दूसरे दिन बीरबल पहुंचा और कहा कि " जी! आपके बेवकूफ सारे मिल गए हैं। पांच बेवकूफ मिल गए हैं।"

पहले की बात बताई, तो बादशाह खूब हंसा कि "हां! सचमुच में यह बेवकूफ है।"

दूसरे की बात बताई, कहा, "हां! यह भी बेवकूफ है।"

तीसरे की बात बताई, कहा, "हां! यह भी बेवकूफ है।"

पर अकबर ने कहा, "चौथा कहां है ?"

कहा, "हुजूर! चौथा तो मैं हूँ कि आपने मेरे को यह कहा कि जाकर बेवकूफों को ढूंढो, मैं बेवकूफों को ढूंढने में लगा रहा, तो चौथा बेवकूफ तो मैं हूँ।"

अकबर ने कहा, पांचवां?

कहा, "हुजूर! गुस्सा मत होना, पर पांचवें बेवकूफ आप हैं, जो आप पांच बेवकूफों को चाहते हैं।"

पर सुनिए, इसका क्या मतलब है! पहला जो बेवकूफ था — किसी ने इसको कह दिया कि इतनी बड़ी चाहिए चीज और उसी पर लगा हुआ है। क्या अनुभव है उसका! कुछ मालूम नहीं! क्या हो रहा है उसकी जिंदगी में! कुछ मालूम नहीं! परंतु उसको यह बता दिया गया है कि खिड़की इतनी चौड़ी है और इतनी चौड़ी खिड़की के लिए पर्दा चाहिए, कपड़ा चाहिए तो वह उसको लिए हुए है। यह नहीं है कि गिर गया है तो उठ जाएँ, चाहे उसको वापिस क्यों ना जाना पड़े और कोई और चीज से वह नापे, ताकि वह वहां पहुंचे और कपड़ा ला सके। (यह तो हुआ पहला वाला)

बोझ वाला — जो गधे वाला था, यही लोग कर रहे हैं। सारी दुनिया कर रही है। बोझ रखा हुआ है अपने सिर पर, अपने कंधों पर, कंधे टूट रहे हैं पर कह रहे हैं कि "नहीं, नहीं! मैं किसी और को यह बोझ नहीं देना चाहता हूं अपने ही पास रखूँगा।"

जो तीसरा था — वह तो सबके साथ है ही। "है कहाँ और ढूंढे कहां" कैसे लगेगी हाथ में, कैसे आएगा हाथ में, कैसे वह चीज समझ में आएगी! जो चीज घट में है उसको कहीं और ढूंढ रहे हैं, तो कैसे मिलेगा ?

जो वो दो बेवकूफ थे — बीरबल, जो असली चीज को नहीं जानते हैं जो नकली को ही परखते रहते हैं, परखते रहते हैं, परखते रहते हैं, तो वह भी बेवकूफ हैं। और वह इच्छा करने वाला कि “बेवकूफी क्या होती है, मेरे को यह मालूम होना चाहिए” क्योंकि जो मनुष्य नरक के बारे में ज्यादा जानता है स्वर्ग के बारे में कम जानता है उसका क्या होगा वह तो गलत सोच रहा है! क्योंकि सोचना अगर उसको है तो स्वर्ग के बारे में सोचना चाहिए। जानना उसको कुछ है तो यह जानना चाहिए कि वह स्वर्ग कहां है, उसके अंदर वह स्वर्ग कहां है ?

तो अब यह आखिरी वाली इस सीरीज़ में, आखिरी वाली यह ब्रॉडकास्ट है और अब PEP की भी बात आई थी कि PEP ट्रेनिंग हो तो उसके लिए सारी चीजें इकट्ठा कर रहे हैं और हम चाहते हैं कि प्रोग्राम भी हमारे हों, तो अभी तो लॉकडाउन है, तो अभी आ नहीं सकते तो हम सोच रहे थे कि वर्चुअल प्रोग्राम हों ताकि हम जैसे यहां हैं बैठे वैसे ही सत्संग सुनाएं, पर वह पूरा प्रोग्राम हो। तो यही हमारी इच्छा है और इसके लिए हम तैयारी करेंगे, तो यह जो ब्रॉडकास्ट है यह यहीं समाप्त होगी और दिखाया जायेगा — और चीजें और हमारे वीडियोस हैं वह दिखाई जायेंगी। जब तैयार हो जायेगा सबकुछ तो फिर हम वापिस आपके पास आयेंगे।

सभी लोगों को मेरा बहुत-बहुत नमस्कार! कुशल-मंगल रहें और अपना ख्याल रखें।

लॉकडाउन 39 00:27:14 लॉकडाउन 39 Video Duration : 00:27:14 प्रेम रावत जी द्वारा हिंदी में सम्बोधित (1 मई, 2020)

प्रेम रावत जी:

सभी श्रोताओं को हमारा बहुत-बहुत नमस्कार!

आज के दिन भी काफी तैयारियां हो रही हैं, क्योंकि यह 40वें ब्रॉडकास्ट की तरफ बहुत जल्दी पहुंच रहे हैं बल्कि कल 40वां ब्रॉडकास्ट हो जाएगा। और मेरे को थकान भी महसूस हो रही है क्योंकि हर दिन 40 ब्रॉडकास्ट अंग्रेजी में हुई हैं और 40 ब्रॉडकास्ट हिंदी में हुई हैं, तो कुछ दिन तो मैं आराम करूंगा और उसके बाद PEP की तैयारी करेंगे जो पीस एजुकेशन प्रोग्राम है।

बात यह है कि PEP की तैयारी तो हो जाएगी, जब भी PEP आएगा, पर सबसे बड़ी बात है कि जो कुछ भी कहा जा रहा है इसका कोई असर पड़ रहा है लोगों पर या नहीं! क्योंकि कहीं ना कहीं पानी है, कहीं ना कहीं फल है, परन्तु अगर उसका कोई आनंद लेने वाला, उसका कोई फायदा लेने वाला नहीं है तो कहीं ना कहीं वह भी मनुष्य है, जो प्यासा मर रहा है या भूखा मर रहा है। क्योंकि वह वहां नहीं है जहां नदी है, जहां पानी है। वह वहां नहीं है जहां फल है, तो अगर हम अपनी दुनिया के अंदर कुछ इस तरीके से दूर हो जाएं उन चीजों से जिन चीजों की हमको जरूरत है, चाहत की बात नहीं, पर जिन चीजों की हमको जरूरत है — अब सब लोगों को मालूम है कि पानी की आपको जरूरत है, हवा की आपको जरूरत है, भोजन की आपको जरूरत है, सोने की आपको जरूरत है, गर्मी की आपको जरूरत है, ज्यादा गर्मी नहीं ज्यादा ठंडी नहीं। परन्तु क्या हम कभी सोचते हैं कि शांति भी हमारी जरूरत है। हमारा हृदय आनंद से भरे यह भी हमारी जरूरत है, चाहत नहीं जरूरत है। क्योंकि इसके बिना सारा जीवन सूना-सूना लगता है। ऐसा लगता है कि जी रहे हैं, परन्तु क्यों जी रहे हैं यह नहीं मालूम जैसे —

ज्ञान बिना नर सोवहिं ऐसे, लवण बिना भव व्यंजन जैसे।

वही वाली बात हो जाती है किस चीज का ज्ञान ? जो संत-महात्माओं ने हमको कहा है कि हमारे पास ज्ञान होना चाहिए तो वह कैसा ज्ञान है, कौन-सा ज्ञान है तो वह ज्ञान है अपने आपको जानने का —

आत्मज्ञान बिना नर भटके, क्या मथुरा क्या काशी।

आत्मज्ञान — जो स्वयं का ज्ञान है, जो चीज तुम्हारे अंदर है उस चीज का ज्ञान। और अगर नहीं है ज्ञान तो आदमी भटकता है क्योंकि उसको वह चाहिए — उसको शांति चाहिए, उसको आनंद चाहिए, अब यह बातें हम सोचते नहीं हैं इन चीजों के बारे में, क्योंकि यह चीजें हमको नहीं बताई जाती है। हमको यह बताया जाता है "नौकरी करो, यह करो, वह करो, यह ठीक ढंग से करो", तब जा करके तुम्हारा जीवन आनंद से भरेगा, परंतु हम कभी यह पूछते नहीं है कि "कौन ऐसा व्यक्ति है जिसका जीवन आनंद से भरा हुआ है!" इन दुनियादारी की बातों में रह करके कुछ भी कर लो, कुछ भी कर लो यह तो वही वाली बात है कि — भगवान राम वापिस आए, अब पहले एक बार जब सीता को उन्होंने श्रीलंका से लिया, उनको बचाया वहां से तो उनसे कहा कि "तुम एक इम्तिहान ले लो, अग्नि परीक्षा ले लो ताकि सब लोगों को, जो यहां है उनको पता लग जाए कि तुम पवित्र हो।” वापिस आए, राज्याभिषेक हुआ, सबकुछ हुआ, बहुत अच्छा हुआ, सबकुछ बड़े आनंद से चल रहा था। (मैं भगवान राम की बात कर रहा हूं, मैं भगवान राम की बात कर रहा हूं, मैं छोटे-मोटे किसी की बात नहीं कर रहा हूं, मैं भगवान राम की बात कर रहा हूं) और सबकुछ बड़े अच्छी तरीके से चल रहा था और एक धोबी ने यह कहा कि — उसकी बीवी भाग गई कहीं, रात भर कहीं रही तो जब दूसरे दिन वह वापिस आयी तो कहा कि "मैं तेरे को काहे के लिए रख लूँ, मैं कोई राम थोड़े ही हूं कि मेरी पत्नी कहीं और हो और मैं उसको वापस रख लूँ।” यह जब शब्द, यह जब खबर भगवान राम को मिली तो भगवान राम ने सीता को कहा कि "तुम वनवास — तुम चली जाओ यहां से!"

देखिये! उस समय क्या भगवान राम को दुःख नहीं हुआ, दुःख हुआ! क्या सीता को दुःख नहीं हुआ, बिलकुल हुआ! क्या लक्ष्मण को दुःख नहीं, बिलकुल हुआ! सभी को दुःख हुआ। क्योंकि यह प्रकृति है इस माया की कभी दुख देती है, कभी कुछ होता है, कभी कुछ होता है, कभी कुछ होता है। सुख तो एक ही चीज में है और वह चीज क्या है ? वह चीज है जो तुम्हारे अंदर विराजमान है। उसमें सुख है, उसमें आनंद है। इस दुनिया की सारी चीजों में कहीं ना कहीं मैं नहीं कह रहा कि आनंद नहीं है, परन्तु वह आनंद नहीं है जो हमारे अंदर आनंद है। हां, चंद मिनटों की खुशी जरूर मिलती है, जैसे अगर आप फिल्म देखने के लिए जाएं और वह फिल्म, (हिंदुस्तान में तीन घंटे की होती है, ढ़ाई घंटे की होती है ऐसा ही कुछ है) परन्तु अगर वही फिल्म — "उसमें जाते है, लोग बैठते हैं, हंस रहे हैं, बड़ा अच्छा लगता है लोगों को, बाहर आते हैं अच्छी फिल्म थी, यह है, वह है।" परन्तु वह कितने घंटे चली! इतना ही तो आनंद मिला, उसके बाद क्या करेंगे! अब कुछ करना चाहिए, तो लोग जाते हैं “कोई पिज़्जा खाएगा, कोई आइसक्रीम खाएगा, कोई कुछ करेगा, कोई कुछ करेगा।" क्योंकि आनंद को खोजता रहता है मनुष्य, क्योंकि उसको वह आनंद चाहिए और कहां-कहां नहीं खोजता है। वह सोचता है कि "अगर मैं सारी दुनिया को किसी तरीके से काबू में कर लूं तो मेरे को शांति मिल जाएगी, मैं सबसे ताकतवर आदमी हो जाऊंगा सारे संसार में।" उसमें भी उसको आनंद नहीं मिलता है।

जब ऐलग्ज़ैन्डर की बात आती है, सिकंदर की बात आती है, उसका नाम "ऐलग्ज़ैन्डर" विदेश में और हिंदुस्तान में उसको "सिकंदर" के नाम से जाना जाता है। वह सचमुच में बहुत ताकतवर राजा था और जब हिंदुस्तान आया वह तो उसको देली बेली के बारे में मालूम नहीं था, बीमार हो गया और फिर उसको वापस जाना पड़ा, तो उन्हीं राजाओं को जिनको उसने हराया था आते समय, जब जा रहा था वह तो कमजोर हो गया तो वही राजा लोग उस पर थूक रहे थे। वापिस गया वह और उसका शरीर पूरा हुआ तो उसने कहा कि "जब मेरा शरीर पूरा हो जाए और मेरे को ले जा रहे हो गाड़ने के लिए, दफनाने के लिए तो मेरे हाथों को बाहर निकाल देना और इसलिए निकाल देना कि मैं दिखाना चाहता हूं दुनिया को कि मैं खाली हाथ आया था और खाली हाथ मैं इस संसार से जा रहा हूँ। जो कुछ भी है, जो कुछ भी मेरे संबंध हैं, संबंधी हैं, जो कुछ भी मैंने कमाया, जो कुछ भी मैंने किया इन चीजों को मैं साथ नहीं ले जा सकता हूँ।"

हम खोज रहे हैं उस चीज को, मज़ा ले रहे हैं। अब कई लोग हैं, यही उनका मंत्र है कि हम सुबह से लेकर शाम तक इन चीजों का मजा लेंगे, परन्तु यह सिर्फ मज़ा लेने की चीज नहीं है, यह दुःखदायी भी है। एक ही ऐसी चीज है जो दुःखदायी नहीं है और वह है तुम्हारे अंदर। अगर तुमको इस संसार के अंदर रहना है और जो कुछ भी करना है, करना है इस संसार के अंदर, तो यह तो और जरूरी बात बन जाती है कि तुम उस चीज को पहचानो, जो तुम्हारे अंदर है। क्योंकि तुमको सुकून की जरूरत पड़ेगी, शांति की जरूरत पड़ेगी। जब तुम दुखी होगे इस संसार से तो कहां जाओगे! उस प्राणी के लिए जो इस संसार से दुखी है उसके लिए एक ही है और वह है तुम्हारे अंदर बैठा हुआ। वह तुमको संभाल सकता है, अगर तुम संभलना चाहो तो वह तुमको संभाल सकता है, वह तुमको बचा सकता है। इस दुनिया के अंदर जो कुछ भी हम करते हैं, जिस जाल में हम फंसे हुए हैं, है एक जाल ही या तो दिखाई नहीं देता। उसमें जाकर फंस जाते हैं। जैसे मकड़ी का जाल जो कीटाणु हैं, जो उसमें जाकर लगते हैं, उनको दिखाई नहीं देता। वह तो उड़ रहे हैं हवा से और जब उसमें अटक जाते हैं और जितना वह हिलने की कोशिश करते हैं, उससे निकलने की कोशिश करते हैं उतना ही वह और उसमें फंसते चले जाते हैं।

दुनिया का भी जाल ऐसा ही है — "आओ यह करो, तुम यह करो, तुम यह करो, तुम यह करो!" कितने जाल हो गए हैं, कितने जाल हो गए हैं — जब बच्चे थे तो एक ही चीज थी — खेलो, कूदो, मज़ा लो, आनंद लो, जब नींद आ जाये, सो जाओ, जब नींद नहीं आए यह किसी का झंझट नहीं है कि "क्या टाइम है, किसी ने घड़ी नहीं पहनी हुई है, यह नहीं है कि किसी ने अलार्म बजाई हुई है।" नहीं! रात को आँख खुल गई, रात को आँख खुल गई! दिन में नींद आ गई, दिन में नींद आ गई! खाना कब खाना है जब भूख लगे। सोना कब है जब नींद लगे। तो यह सारी चीजों पर आप निर्भर थे। मतलब, जिस चीज की आपको जरूरत थी, जो चीज आप चाहते थे उसकी प्यास अंदर से लगती थी, तो पानी की प्यास लगी या भोजन की भूख लगी या नींद आयी, तो उसी के हिसाब से आप सबकुछ करते थे।

धीरे-धीरे करके यह सारे जो नाते हैं, यह टूटते हैं, जो आपके साथ नाते हैं, अपने नाते, टूटते हैं। तो फिर क्या होता है कि आदमी को नींद आ रही है, परंतु वह सो नहीं सकता है। इसलिए नहीं सो सकता कि किसी मीटिंग में है या कार चला रहा है या कुछ कर रहा है या कुछ कर रहा है। अंदर से तो आवाज आ रही है, अंदर से तो यह महसूस कर रहा है कि "वह थका हुआ है और उसको सोने की जरूरत है।" परंतु वह फिर कुछ ना कुछ करके चाय पीकर, यह करके, वह करके, हाथ मसल करके, ठंडा पानी डालकर अपने आपको सचेत करता है ताकि वह कर सके तो जो वह करना चाहता है। भूख लगती है, भूख लगती है तो घड़ी की तरफ देखता है कि खाने का समय हो गया है या नहीं। वह चीजें चली गयीं कि जब भूख लगी तो खाना खाना है। वह चीजें चली गयीं कि जब भूख लगी तो खाना खाना है, जब प्यास लगी तो पानी पीना है। अब वह घड़ी को देखता है, अब वह अपने समाज को देखता है कि समाज क्या कह रहा है, समाज किस तरीके से कह रहा है, किस तरीके से रह रहा है, किस तरीके से कर रहा है और धीरे-धीरे-धीरे करके इन्हीं झंझटों में मनुष्य पड़ता रहता है, पड़ता रहता है, पड़ता रहता है, पड़ता रहता है, पड़ता रहता है। और असली चीज उससे दूर हो रही है और वह असली चीज है कहाँ ? वह कहीं पेड़ पर नहीं लगी हुई है, कहीं सितारों में नहीं है, वह स्वयं उसके अंदर है। परन्तु वह अपने आपको भी पहचान नहीं सकता है अब। मतलब, वह अपने से ही इतना विपरीत हो गया है, जैसे-जैसे-जैसे-जैसे-जैसे समय चलता है कि "वह क्यों है यहां यह उसको नहीं मालूम।" यह उसको मालूम है कि क्या करना है, क्या करना है यह उसको मालूम है। और क्या है करना उसको ?

अगर परिवार में है कोई, तो पति को मालूम है क्या करना है — "सवेरे उसको उठना है, चाय पीनी है, गुसलखाना जाना है, तैयार होना है और तैयार होने के बाद नाश्ता करना है और फिर काम पर जाना है।" यह उसको मालूम है। यह उसको मालूम है। उसकी पत्नी को मालूम है उसको क्या करना है — "उसको सबसे पहले उठना है, चाय बनानी है, नाश्ता बनाना है, बच्चों को तैयार करना है, बच्चों को भेजना है फिर खुद तैयार हो करके सब्जियां लानी है और सब्जी लाकर खाना पकाना है और वह खाना पति को भेजना है लंच-टाइम के लिए और जब सब आयें वापिस तो सबके लिए खाना तैयार रखना है। शाम का खाना बनाना है, यह सारा काम है, घर साफ करना है।" यह सब करना है। यह सबको मालूम है। बच्चों को क्या मालूम है — "तैयार होना है, स्कूल जाना है, स्कूल जा करके अपना होम वर्क वापिस लाना है, होम वर्क करना है घर में और फिर दूसरे दिन वही करना है।" यह सबको मालूम है।

बड़े से बड़े लीडर को यह मालूम है कि क्या करना है। पर यह किसी को मालूम नहीं है कि "क्या करने के लिए आए थे!" मूल चीज क्या है! अगर यह सारी टेक्नोलॉजी जो आस-पास में है, यह न हो और एक समय नहीं थी, तब क्या करना था ? तब क्या करना था ? यही चीज है कि हम भूल गए कि हम यहां क्यों आये हैं! और यह याद है कि जो पट्टी दुनिया ने पढ़ाई है। वह सब याद है कि "यह करना है, यह करना है, यह करना है" और मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि यह नहीं करना है। मैं इसलिए क्रिटिसाइज़ नहीं कर रहा हूँ। मैं कह रहा हूँ कि इसमें एक चीज बहुत जरूरी है, इस सारे प्लान में जो आपका प्लान है कि "हम यह करेंगे, हम यह करेंगे, हम यह करेंगे, हम यह करेंगे।" क्योंकि प्लान तो है, लोगों का प्लान तो है इसमें तो कोई शक़ की बात नहीं है कि लोगों का प्लान नहीं है, प्लान तो है लोगों का। और क्या प्लान है लोगों का "हम यह करेंगे, ऐसा होगा, ऐसा होगा, ऐसा होगा, ऐसा होगा!" और कई बार, कई बार क्या! यह तो हमेशा की ही बात है कि प्लान वैसा नहीं होता है जैसा आपने बनाया हुआ है। उल्टा जाता है, उल्टा जाता है और फिर लोगों को अचंभा होता है कि "मेरे साथ यह क्यों हो रहा है, मैंने ऐसी क्या चीज कर दी ?"

अरे! बात इसकी नहीं है कि आपने यह क्या चीज कर दी, यह आपका बनाया हुआ प्लान है। यह उसका बनाया हुआ प्लान नहीं है, जिसने सारी सृष्टि की रचना की है। यह उसका बनाया हुआ प्लान नहीं है, यह आपका बनाया हुआ प्लान है और आपको बनाया हुआ प्लान आप देख रहे हैं। इसके इंचार्ज आप हैं, इसकी इच्छा भी आप ही की है, इसकी रचना भी आपने ही की है, इसकी पूर्ति के लिए भी आप ही लगे हुए हैं और भगवान को तो तब बुला लेते हैं जब कोई अनहोनी हो जाती है। तब कहते हैं कि "तैनें ऐसा क्यों कर दिया, तैनें ऐसा क्यों कर दिया" पर प्लान बनाया किसने ? प्लान बनाया तुमने, प्लान बनाया तुमने।

अब कई बार होता है, कोई चढ़ा बस में दुर्घटना हो गयी और नहीं पहुंचा वह। तो लोग क्या कहेंगे "भगवान तूने ऐसा क्यों कर दिया!" दोष देंगे भगवान को, पर बस का टिकट किसने खरीदा था! भगवान ने, भगवान ने तुमको टिकट दिया था, तुम्हारे हाथ में टिकट थमाया था कि "तुम इस बस में जाओ।" नहीं! तो यह सारी चीजें हैं और हम इस पर ध्यान नहीं देते हैं। हम इन चीजों को नहीं देखते हैं। हम चल रहे हैं, चल रहे हैं, चल रहे हैं, किस प्रकार चल रहे हैं, जैसे वह बैल जो कुएं के आस-पास चलता रहता है और उसके चलने से उस कुएं में से पानी निकलता है — बांधा हुआ है उस पर एक लकड़ी का वह हिस्सा रहता है वह गियर पर लगा रहता है और फिर वह पानी की जो चीज होती है कुएं में लगी हुई उसको चलाता है। पर क्या करते हैं उस बैल के साथ! उसकी आंखें बंद कर देते हैं ताकि उसको लगे ना कि कहां हैं! तो वह चक्कर ही चक्कर काटता है और क्या सोचता है वह "कहां से कहां पहुंच गया, क्या हो गया उसका!" कितनी दूर सारे, मतलब, आधा दिन अगर वह चले तो कहां से कहां पहुंच गया होगा, पर जब उसकी पट्टी खुलती है तो वह अपने आप को वहीं पाता है जहां वह था, यही होता है। तो मनुष्य अपने आप को वहीं पाता है जहां वह था। हाथ खाली, हृदय में इच्छा आनंद की क्योंकि सफल होना, इस संसार के अंदर सफल होना बहुत मुश्किल है। वह कोई बात नहीं करता, वह कोई बात नहीं करता है कि इस संसार में सफल होना क्यों मुश्किल है। क्योंकि अगर मेरे से कोई पूछे कि क्यों मुश्किल है, तो मैं कहूंगा यह मुश्किल नहीं है।

सफलता तुमको संसार से नहीं मिलेगी, सफलता तुम्हारे अंदर है। और जब तुम अंदर की तरफ झांककर देखोगे तो सफलता तुमको मिलेगी। तब तुम्हारी समझ में आएगी। तो लोगों का यह आचरण बना हुआ है, यह सबकुछ उन्होंने किया हुआ है कि "हम ऐसे हैं, हम ऐसे हैं, हम ऐसे हैं, हम ऐसे हैं, हमारे साथ यह है, हमारे साथ वह है, हम यह करेंगें, हम वह करेंगें" पर जब अपने अंदर मुड़कर नहीं देखोगे, तो फिर फायदा क्या है! यह एक भजन है —

कामिल काम कमाल किया,

तैंने ख्याल से खेल बनाय दिया||

नहीं कागज कलम जरुरत है,

बिन रंग बनी सब मूरत है |

इन मूरत में एक सूरत है,

तैंने एक अनेक लखाय दिया||

जल बून्द को लेकर देह रची,

सुर मानव दानव जीव जुदा|

सबके घट अन्दर मंदिर में,

तैंने आप मुकाम जमाय दिया ||

सबके घट अन्दर मंदिर में,

तैंने आप मुकाम जमाय दिया ||

सबसे जरूरी बात, सबसे जरूरी चीज!

कोई पार न वार अधार बिना,

सब जीव चराचर धार रहा |

बिन भूमि मनोहर महल खड़ा,

बिन बीज के बाग लगाय दिया ||

यह अंदर वाले की बात है! सब लोकन के नित संग रहे, (सुनिए आप) —

सब लोकन के नित संग रहे

फिर आप असंग स्वरुप सदा |

'ब्रह्मानन्द' आनंद भयो मन में,

गुरुदेव अलेख लखाय दिया ||

सारी समझ में आ गयी यह बात ? तो सबकुछ है, जो समझ में नहीं आती थी, जो अलेख था, जिसके बारे में कोई यह नहीं था कि मैं इस चीज को जानता हूं उसको गुरु ने दिखा दिया, उसको गुरु ने बता दिया। वह चीज है तुम्हारे अंदर।

इस दुनिया की वही बात है कि अभी तो लॉकडाउन में हैं लोग, फिर धीरे-धीरे गवर्नमेंट अनाउन्स कर रही है कि हफ्ते में, दो हफ्ते में, तीन हफ्ते में जब भी लॉकडाउन ईज़-अप होने लगेगा, लोग इधर उधर जाने लगेंगे तो मैं तो यही सब लोगों से पूछता हूँ कि “भाई! जब यह लॉकडाउन खत्म होगा तब तुम वही चीज करोगे जो करते आये हो!"

अभी प्रदूषण कम हुआ है। गंगा को साफ करने के लिए कितने परिश्रम हुए! गंगा को साफ करने के लिए कितने परिश्रम हुए। अरबों-अरबों रुपए खर्च हो गया जिससे पता नहीं कितने लोगों की भूख खत्म हो सकती थी, परंतु इस कोरोना वायरस ने गंगा को साफ कर दिया। इस कोरोना वायरस ने गंगा को साफ कर दिया। अच्छे-अच्छों को घर बिठा दिया और अच्छे-अच्छों के घर बैठने से सारी पृथ्वी के अंदर चैन की बंसी बजी है। समुद्रों में, नदियों में, सबको राहत मिली है। मनुष्य बेचैन है जरूर, पर पशु-पक्षियों को सबको राहत मिली है। क्या इस कोरोना वायरस लॉकडाउन के बाद हम फिर वही उटपटांग काम शुरू कर देंगे जो हम करते आ रहे हैं जिसकी वजह से ऐसे स्थान पर हम पहुंचे जहां इतनी सारी दिक्कत उठानी पड़ी! क्या इसी स्थान पर वापस पहुंचेंगे हम ? क्या इसी दर्ज़े पर वापिस आएंगे या कुछ अलग से करेंगे ताकि ऐसी नौबत दोबारा ना आये। क्या हम एक-दूसरे के तरफ देख करके, एक दूसरे की मदद करने की कोशिश करेंगे या जो हम से नीचे है उसके सिर पर खड़े होकर के किसी और के सिर पर जाएंगे! लालच! लालच! कितना लालची बन गया है!

इस समय यह कोरोना वायरस — यह धरती की (मेरे को ऐसा लगता है कि) धरती की पुकार थी कि कुछ हो ताकि कुछ राहत मिले, क्योंकि मनुष्य ऐसी-वैसी चीज से मानता नहीं है। मनुष्य को कहो "देख! यह प्रदूषण तेरे को मार रहा है।" लगे हुए हैं, लगे हुए हैं। प्रदूषण बनाने में लगे हुए हैं सब। कोई यह जला रहा है, कोई वह जला रहा है, कोई वह जला रहा है बाहर। सब चीजों से प्रदूषण हो रहा है। क्या इस बार कुछ सबक सीखेंगे या नहीं या फिर वही बात हो जाएगी जो पहले की थी! "भाई! अगर सबक सीख सके तो अच्छा रहेगा ताकि आगे हम बढ़ सकें, सभी लोग बढ़ सकें, आगे की तरफ चलें, अच्छा हो, आनंद से हो, सभी के जीवन में आनंद हो" यही बात है। क्योंकि जिस चीज की हम बात कर रहे हैं, वह है क्या! वह परमांनद की बात है, उस खुशी की बात है, उस सच्चाई की बात है।

अब लोग हैं जो बाहर की चीजों से परेशान हैं "मेरे साथ ऐसा क्यों होता है, ऐसा क्यों होता है, ऐसा क्यों होता है, ऐसा क्यों होता है।" कई लोग प्रश्न हमको भेजते हैं, यही उन प्रश्नों में लिखा हुआ है कि "ऐसा क्यों होता है, ऐसा क्यों होता है, ऐसा क्यों होता है।" पर यह अंदर की दुनिया में नहीं होता है। वहां से निराशा नहीं मिलती है, वहां आशा है, वहां निराशा नहीं है, वहां अंधेरा नहीं है, वहां उजाला है, वहां प्रश्न नहीं हैं, वहां उत्तर हैं और वह जगह है तुम्हारे अंदर, तुम्हारे हृदय में।

घट में है सूझे नहीं, लानत ऐसी जिन्द।

तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिंद।।

है तो तुम्हारे अंदर ही! बस जानो इस चीज को तो तुम्हारे जिंदगी के अंदर भी आनंद ही आनंद होगा। उस तरफ अगर देखोगे, उस तरफ जानोगे कि सच्ची बात होती है — अब कई लोग हैं आप देखेंगे जब पहाड़ पर चढ़ते हैं, अगर पहाड़ का ऐसा हिस्सा है और इस पर चढ़ रहे हैं तो क्या करते हैं ? रस्सी बांधी हुई है, रस्सी बांधी हुई है और रस्सी को इस तरीके से बांध लेते हैं कि अगर उनका पैर फिसल जाए तो रस्सी उनको बचा लेगी। तुम्हारी रस्सी कहां है, तुम्हारी रस्सी कहां है ? अगर तुम्हारी रस्सी नहीं है, पैर फिसलेगा, तुम गिरोगे तो गड़बड़ होगी। पैर फिसलेगा, जरूर फिसलेगा, पर तुम्हारी रस्सी कहाँ है! यह ज्ञान रूपी रस्सी, यह आनंद रूपी रस्सी, इससे बंधे रहो तो तुम्हारे जीवन के अंदर आनंद रहेगा।

सभी श्रोताओं को मेरा बहुत-बहुत नमस्कार!

लॉकडाउन 38 00:17:07 लॉकडाउन 38 Video Duration : 00:17:07 प्रेम रावत जी द्वारा हिंदी में सम्बोधित (30 अप्रैल, 2020)

प्रेम रावत जी:

सभी श्रोताओं को मेरा बहुत-बहुत नमस्कार!

आज मैं जिस चीज से चालू करना चाहता हूं, एक भजन है वह मेरे दिमाग में बहुत दिनों से चल रहा था तो मैंने सोचा कि उसको — सारा याद नहीं है मेरे को तो मैंने प्रिंट कर दिया है उसको। तो कबीरदास जी का यह भजन है क्योंकि हमारे संसार में जिस संसार में हम रहते हैं हर एक चीज का दिखावा है "हम यह हैं, हम यह हैं, हम यह हैं, कोई यह है, कोई यह है।" सब लोग सूट पहनते हैं, यह करते हैं, वह करते हैं, हम यहां हैं, हम यहां हैं, यहां हैं और सब वर्दी का खेल है। "किसी की कुछ वर्दी है, किसी की कुछ वर्दी है, किसी के यहां कुछ लिखा हुआ है, किसी के यहां कुछ लिखा हुआ है, किसी का यहां कुछ टंगा हुआ है, किसी का" — सबका यह खेल है। हम कई बार नहीं समझते हैं इस खेल को और हमको यही कहा जाता है कि सारे खेल का का आदर करो। हम करते हैं।

परन्तु कबीरदास जी कहते हैं कि यह खेल जो है, बाहर का यह इस संसार में हो रहा है और किस तरीके से उन्होंने रखा है कि —

मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।।

जिस चीज को रंगना हैं वह तो मन है। वही तो भागता है "इधर-उधर, कभी यहां, कभी वहां, कभी वहां।" पर उसको तो नहीं रंगा। रंगा किसको, कपड़े को। अब कपड़े रंगने से क्या फायदा ? कपड़े का दोष थोड़े ही है। कपड़े की वजह से मनुष्य इधर-उधर थोड़े ही भटक रहा है। वह भटक रहा है इसलिए कि उसका मन रंगा हुआ नहीं है तो —

मन के बहुत तरंग हैं, छिन छिन बदले सोय।

एकै रंग में जो रहै, ऐसा बिरला कोय ।।

तो यह बदलता रहता है, बदलता रहता है, बदलता रहता है और रंगने की इसको जरूरत है। पर उसको नहीं रंगा कैसे!

आसन मारि जोगी मंदिर में बैठे, (देखा होगा आपलोगो ने)

नाम छाड़ि पूजन लागे पथरा।।

मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।।

वैसे तो यह भजन जो है, पॉलिटिकली बिलकुल ठीक नहीं है। पॉलिटिकली बिलकुल इनकरेक्ट है, तो मैं पहले ही माफी मांग रहा हूँ मेरा नहीं है लिखा हुआ, यह कबीरदास जी का है। मैं तो सिर्फ पढ़ रहा हूँ इसको। क्योंकि सुन लें लोग, क्योंकि इसमें जो मूल चीज है वह बहुत ही बढ़िया चीज है। क्यों लगे हैं हम सब बाहर के रंगने में, पोतने में ? जैसे कि किसी की झोपड़ी के अंदर अगर खिड़की भी टूटी हुई है, अंदर दीवार जो बनी हुई है कमरे में वह भी टूट रखी है, छत में छेद हैं। परन्तु बाहर मनुष्य उसको बैठा-बैठा पोत रहा है बाहर से ताकि बाहर से बड़ा सुन्दर लगे। हां, आने-जाने वालों को बड़ा सुन्दर तो जरूर लगेगा। पर उसका फायदा क्या है!

आसन मारि जोगी मंदिर में बैठे।

बैठे हैं ऐसे जैसे कि उनका मन उनके काबू में है। पर नहीं है। पर क्या कर रहे हैं कि जो करना था जो नाम पर, जो सतनाम है, जो अंदर नाम चल रहा है उस पर अपने मन को लगाना था, उसको तो छोड़ दिया और पूजन लागे क्या जिसको- जिसको पूजना था उसको तो नहीं पूज रहे हैं और पूज रहे हैं किस चीज को! पत्थर को पूज रहे हैं।

पूजन लागे पथरा मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।

एक समय था कि लोग कैसा करते थे! उसके बाद इसका फैशन कम हुआ अब फिर ज्यादा हो गया है, अब फिर चल दिया है इसका फैशन। क्या फैशन है —

कनवां फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले,

दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा।।

मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।

कहने का मतलब उनका यह है, मेरा यह मतलब नहीं है कि दाढ़ी नहीं रखनी चाहिए लोगों को या मूंछ नहीं रखनी चाहिए लोगों को या अपने कान नहीं फड़ाने चाहिए पर जिस चीज को रंगना चाहिए उसको तो कम से कम रंगें। उस मन को तो रंगें उसके बाद फिर किसको क्या कहने की जरूरत है कुछ कहने की जरूरत नहीं है, परंतु वह नहीं रंगा हुआ है तो —

कनवां फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले,

अब तो लम्बे-लम्बे सबके बाल होने लगे हैं धीरे-धीरे और इस कोरोना वायरस की वजह से हमारे भी बाल लंबे होने लगे हैं। जो लॉकडाउन में हैं वह नाई के पास तो जा नहीं सकते हैं, तो उनके भी बाल लम्बे होंगें।

कनवां फड़ाय जोगी जटवा बढ़ौले,

दाढ़ी बढ़ाय जोगी होइ गैले बकरा

तो यही हो जाता है। दाढ़ी बढ़ती है तो बकरे के जैसे बन जाते हैं। और मनुष्य के अंदर तो पहले से ही मैं-मैं तो है ही — “मैं, मैं, मैं, मैं, मेरा, मेरा, मेरा, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं, मैं” इसी पर लगा रहता है, बकरे की तरह हो ही जाता है। और क्या करता है जोगी ?

जंगल जाय जोगी धुनिया रमौले,

“कभी यहां, कभी वहां, कभी वहां, कभी वहां!”

काम जराय जोगी होइ गैलै हिजरा।।

अब जंगल में बैठे हुए हैं तो जब काम जरायेगा तो करेंगे क्या! तो —

काम जराय जोगी होइ गैलै हिजरा।।

मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।

मथवा मुड़ाय जोगी भगवा रंगौले,

यही तो करता है जोगी —

मथवा मुड़ाय जोगी भगवा रंगौले,

गीता बाँचि के होइ गैले लबरा।।

मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।

सुना रहे हैं, खुद को नहीं मालूम क्या सुना रहे हैं। पर सुना रहे हैं — "कभी यहां से सुना रहे हैं, कभी वहां से सुना रहे हैं", खुद को नहीं मालूम!

मथवा मुड़ाय जोगी भगवा रंगौले,

गीता बाँचि के होइ गैले लबरा।।

मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।

कहत कबीर सुनो भाई साधो

सभी को चेतावनी है कि सुनो हमारी बात क्या होगा, आखिरी में क्या होगा जाकर —

यम दरवाजे पर जायेगा पकड़ा

मन न रँगाये रँगाये जोगी कपड़ा।

अंत में पकड़े जाओगे। अंत में पकड़े जाओगे। क्योंकि जो तुम दुनिया के आगे यह सबकुछ डाल रहे हो कि "मैं यह हूं, मैं यह हूं, मैं यह हूं।" असली में तुम क्या हो, क्या तुमको मालूम है कि तुम असली में क्या हो ? क्या कर रहे हो! दुनिया को बेवकूफ बनाने में लगे हुए हो। सभी लोग बना रहे हैं, "कोई कुछ है, कोई कुछ है, मैं यह हूँ, मैं यह हूँ, मैं यह हूँ, मैं यह हूँ।" सबका यही चक्कर है, पर संतुष्ट कौन है ? संतुष्ट तो वही संतुष्ट है जिसने सचमुच में अपने मन को रंग लिया है। जिसने वह बात समझ ली है कि "मैं यहां क्यों हूँ!" अब मैं एक बात सोच रहा था, अब जैसे यह बात है कि अगर एक को शून्य से जोड़ा जाए तो क्या होगा? कुछ नहीं होगा एक, एक रहेगा। परन्तु मैं कल सोच रहा था कि शून्य का मतलब है वह चीज जो अनंत है। जिसको नापा नहीं जा सकता, जिसको कुछ किया नहीं जा सकता और अगर वह अनंत चीज के साथ मैं जुड़ूं तो मैं क्या बन जाऊंगा। अगर मैं एक हूं और वह अनंत जो है वह जीरो है, शून्य है तो एक को शून्य से जोड़ोगे तो मैथ में, गणित में तो यही समझाते हैं कि वह एक ही रहेगा। पर मैं सोच रहा था कि कितनी सुंदर बात हो जाती है जब मैं उस शून्य से, उस अनंत से जाकर मिलता हूं तो मैं भी अनंत बन जाता हूँ, मैं भी, जो मेरे अंदर की चीज है। यह नहीं, यह अनंत नहीं बनता यह तो नाशवान है और यह नाशवान रहेगा। यह मिट्टी का बना हुआ है और मिट्टी का बना हुआ रहेगा यह।

परन्तु जो अंदर चीज है मेरे अंदर जो अविनाशी है, वह बैठा हुआ है और मैं उसके साथ जाकर मिल जाऊं तो मैं भी उसी के साथ मिल गया। मैं भी वही बन गया। जो गणित इस दुनिया की समझाते हैं उसमें तो एक और उसको जोड़ा जीरो के साथ शून्य के साथ तो एक। और सच्ची में इस अंदर की दुनिया में एक (जो मैं हूँ) उसको अगर शून्य के साथ जोड़ा, तो मैं भी शून्य ही बन जाऊँगा। समझने की बात है, मैं हूँ यही — जो मैंने कबीरदास जी का भजन आप लोगों को सुनाया था कि "मैं नहीं मरता, क्योंकि मेरे को कौन मिला है वह जियावन हारा मिला है तो मैं कैसे मर सकता हूँ!”

तो वही वाली बात है कि अगर मैं उसके साथ मिल जाऊं और वह मेरे अंदर है। मैं उसको अगर जान लूँ, पहचान लूं "वह मेरे अंदर है" परन्तु मैं करता क्या हूँ ? इस दुनिया के ऊपर ध्यान देता हूँ — "यह है, यह है, यह है, यह है, यह है!" अखबार पढ़ता हूँ, सवेरे-सवेरे अखबार पढ़ते हैं, सभी लोग पढ़ते हैं, मैं भी पढ़ता हूँ। "उसके साथ क्या हो रहा है, उसके साथ क्या हो रहा है, वहां क्या हो रहा है, वहां क्या हो रहा है, वहां क्या हो रहा है" और सच में वह व्यक्ति, सबसे-सबसे विद्वान वह व्यक्ति है जो कह रहा है "यहां क्या हो रहा है, यहां क्या हो रहा है!" यहां क्या हो रहा है फिर यहां क्या हो रहा है — यहां जो गड़बड़ हो रही है मैं पढ़ रहा हूँ उसको, "वहां इसने यह कह दिया, उसने यह कह दिया, अब यह नहीं होगा, वह नहीं होगा, उसके साथ यह नहीं होगा, उसके साथ यह नहीं हो सकता” और यहां, यहां क्या हो रहा है ? यहां वह लीला हो रही है, यहां वह चीज हो रही है, यहां वह स्वांस की बंसी बज रही है कि —

बिना बजाये निसदिन बाजे, घंटा शंख नगारी रे।

बहरा सुनसुन मस्त होत है, तन की खबर बिसारी रे।।

वह यहां हो रहा है!

बिन भूमी के महल खड़ा है, तामे ज्योत उजारि रे,

अँधा देख-देख सुख पावे, बात बतावे सारी रे।

यहां हो रहा है और यह अखबार में पढ़ोगे नहीं। यह अखबार में नहीं मिलेगा। यह यहां हो रहा है। तो सबसे बड़ी बात है कि मनुष्य इस बात को समझें, इस बात को जानें कि यहां क्या हो रहा है! जो यहां हो रहा है यह सच है। जो यहां हो रहा है, जो बाहर हो रहा है यह सच नहीं है यह बदलता रहेगा, बदलता रहेगा, बदलता रहेगा, बदलता रहेगा, पर जो यहां हो रहा है वह सच है और उस सच के बिना सारी बात अधूरी है, सारा खेल अधूरा है। सब कुछ अधूरा।

अगर मैंने उस बात को नहीं समझा, उस बात को नहीं जाना तो मेरे यहां आने का फायदा क्या हुआ ? "मैं यहां आया हूं और एक दिन मेरे को जाना है" यह बात तो सबको मालूम है। फिर मालूम होते हुए भी — अब यही बात महाभारत में हुई। महाभारत में क्या हुआ ?

एक बार दृष्टांत है कि बहुत गर्मी थी, बहुत गर्मी और युधिष्ठिर ने नकुल को भेजा कि "तुम जाओ पानी देखो कहीं अगर तालाब हो तो हमको बताओ पानी पीयेंगे!"

काफी समय के बाद नकुल नहीं आया। सहदेव को भेजा "तुम जाओ, तुम देखो!" वह भी नहीं आया। तो भीम को भेजा, वह भी नहीं आया। और अर्जुन को भेजा, वह भी नहीं आया तो फिर युधिष्ठिर गए देखने के लिए, "क्यों नहीं आये, क्या हुआ!"

चलते-चलते-चलते एक जगह वह पहुंचे तो वहां देखा कि सारे भाई उनके वहां लेटे हुए हैं, सब मरे हुए हैं और सामने तालाब है। तो सबसे पहले तो उनको प्यास लगी हुई थी, वह बढ़े तलाब की तरफ। जैसे ही पानी पीने के लिए गए तो वहां पर जो जिन्न था वह आया बाहर। उसने कहा कि "तुम पानी नहीं पी सकते! पानी मैं तब तक नहीं पीने दूंगा तुमको जबतक तुम मेरे सवालों का जवाब नहीं दोगे। अगर तुम मेरे सवालों का जवाब नहीं दोगे तो तुम्हारी भी यही हालत होगी जो तुम्हारे भाइयों की हुई है।"

तो युधिष्ठिर ने कहा, "पूछो! क्या पूछना है तुमको!"

तो काफी सारे सवाल पूछे गए, बहुत सारे सवाल पूछे गए और एक सवाल यह पूछा गया कि "मनुष्य को यह मालूम होते हुए कि उसको एक दिन जाना है, वह ऐसे क्यों जीता है कि वह कभी नहीं मरेगा।"

यह सबसे बड़ी बात है क्योंकि एक तरफ जो हम करते हैं उससे तो यही स्पष्ट लगता है कि हम कभी, कहीं नहीं जा रहे हैं, परंतु यह सत्य नहीं है एक दिन सबको जाना है और इसकी क्या तैयारी है ? इस बात को सामने रखते हुए हम किस प्रकार अपने व्यवहारों को बदलते हैं ? कुछ नहीं। जैसे हमको कभी नहीं मरना है। परन्तु जाना तो सभी को पड़ेगा। तो यह जो कुछ सच्चाईयां हैं इनको हम स्वीकार नहीं करते हैं अपने जीवन में। और जबतक इन सच्चाईयों को हम स्वीकार नहीं करेंगे तो क्या होगा मेरे साथ! हां, मेरे को जाना जरूर है पर कहां जाऊंगा मैं ? कहां जाना है मेरे को ?

नहीं! एक समय था कि मेरे पास यह नहीं था, यह शरीर नहीं था। आज है! मेरे अंदर एक चीज है वही जो अविनाशी है और अगर मैं उसके साथ जुड़ गया तो फिर मैं सब जगह हूँ, मैं हूं और उसी में मैं लीन हो गया अगर तो मेरे लिए वही सब कुछ है। और उसमें अगर मैं लीन नहीं हो सका और मेरा सारा ध्यान इसी मिट्टी पर ही गया तो इस मिट्टी को तो एक दिन मिट्टी बनना ही है। इस मिट्टी को तो एक दिन इस मिट्टी से जाकर मिलना ही है। चाहे मैं कुछ भी करने की कोशिश करूं इसको इस मिट्टी के साथ मिलना है। और इस मिट्टी से मेरे को कितनी नफरत है और इस मिट्टी से मेरे को कितना प्रेम है! यह भी तो सोचिये! वही मिट्टी है और वह थोड़ी-सी मेरे को लग जाए तो मैं कहता हूँ "धूल लग गयी, धूल लग गयी" और यह मिट्टी यह भी उसी की बनी हुई है। इसी मिट्टी को मैं धोता हूँ, धोता हूँ, धोता हूँ क्योंकि दूसरी मिट्टी को निकालने के लिए, परन्तु यह उसी की मिट्टी है। तो इन सच्चाईयों को तो मैं स्वीकार नहीं कर रहा हूँ और मैं चाहता हूँ कि मेरे जीवन के अंदर सबकुछ स्पष्ट रहे, सबकुछ अच्छा रहे, पर जब मैं सच्चाईयों को ही स्वीकार नहीं कर रहा हूँ तो कैसे यह बात बनेगी!

तो सोचने की बात है, विचारने की बात है। सभी श्रोताओं को मेरा बहुत-बहुत नमस्कार!

लॉकडाउन 37 00:18:08 लॉकडाउन 37 Video Duration : 00:18:08 प्रेम रावत जी द्वारा हिंदी में सम्बोधित (29 अप्रैल, 2020)

प्रेम रावत जी:

सभी श्रोताओं को हमारा बहुत-बहुत नमस्कार! आज एक भजन से मैं चालू करना चाहता हूं और भजन है —

हम ना मरैं, मरिहैं संसारा। (आपने सुना होगा)

हमको मिला, जियावन हारा।। (कबीरदास जी का भजन है)

साकत मरैं संत जन जिवैं। भरि भरि राम रसायन पीवैं।।

हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं। हरि न मरैं हम काहे कूँ मरिहै।।

कहैं कबीर मन मनहि मिलावा। अमर भये सुख सागर पावा।।

मतलब क्या हुआ इसका कि हम नहीं मरेंगे यह संसार मरेगा। क्योंकि सभी की यही धारणा होती है कि "नहीं! यह संसार तो रहेगा हमको जाना है।" यहां कबीरदास जी उल्टा बोल रहे हैं कि "हम रहेंगे, संसार जाएगा।" क्योंकि हमको कौन मिल गया है! हमको मिल गया है वह जो “जियावन हारा” है, सब के सब जीवों को जो वह जीवन दान देता है वह हमको मिल गया है। “साकत मरैं” — जो इस संसार के अंदर चक्कर काट रहे हैं, जो संसार में, माया में लिपटे हुए हैं जिनको देखना भी नहीं आता है , भूल गए, भूल गए कि वह अपनी तरफ देखें, भूल गए कि असली चीज क्या है! सब कुछ भूल गए। मां-बाप अपने बेटे को जब — हर एक मां-बाप कुछ ना कुछ कहते रहते हैं अपने बेटे को, बच्चे को, बच्चियों को। तो धीरे-धीरे बच्चे को भी एक बात समझ में आती है। क्योंकि वह उस तरीके से नहीं सोचता है (बच्चा) जैसे जो लोग हैं वह सोचते हैं, जो बड़े हो गए वह सोचते हैं, उस तरीके से नहीं सोचता, वह सोचता है दूसरे तरीके से।

क्या सोचता है वह ? वह यह सोच रहा है कि मैं जो भी करूं मैं अपने मां-बाप को खुश नहीं कर सकता। क्योंकि हमेशा कुछ ना कुछ कहते रहते हैं , कुछ ना कुछ कहते रहते हैं, कुछ ना कुछ कहते रहते हैं। पति है — बीवी पति को कुछ ना कुछ कहती रहती है, कुछ ना कुछ कहती रहती है, कुछ ना कुछ कहती रहती है, “तुम यह ठीक नहीं करते, तुम यह ठीक नहीं करते, यह ठीक नहीं करते।” पति तो बड़ा हो गया है, परन्तु फिर भी उसके दिमाग में क्या बात आती है कि "मैं कुछ कर नहीं सकता कि मैं अपनी बीवी को खुश करूँ!"

पति अपनी बीवी को कुछ ना कुछ कहता रहता है, कभी यह कहता है, कभी वह कहता है, "तू यह नहीं ठीक करती है, तू यह नहीं ठीक करती है, तू यह नहीं ठीक करती है।" तो उसके दिमाग में भी एक बात आती है, वह क्या बात है कि मैं "ऐसा कुछ नहीं कर सकती जिससे कि मेरा पति खुश हो!"

जब यही चीज मां-बाप के साथ होती है, मां-बाप कुछ कह रहे हैं और बेटा यह कहता रहता है "तुम यह नहीं करते, तुम यह नहीं करते, तुम यह नहीं करते, तुम यह नहीं करते" तो मां-बाप के भी दिमाग में एक बात अगर बैठ गई कि "मैं जो भी करूं, मैं कभी खुश नहीं कर पाऊंगा इनको!" तो वह सबसे खराब बात है।

इस संसार के अंदर कई लोग हैं जिनके साथ यही हो गया है कि “यह माया ही सबकुछ है, इस माया से ही सबकुछ मिलेगा।” बड़ा नाम कमाते हैं, तो उनको वह नाम कमाना है माया को लेकर के। कुछ ठीक करना है तो माया को लेकर के। बड़ा आदमी बनना है तो माया को लेकर के और यह सारी शान-शौकत, यह सारी चीजें उनको चाहिए, क्योंकि वह अपने आपको भूल चुके हैं, कौन हैं! और जब मन में यह बात आती रहती है बार-बार "यह ठीक नहीं है, यह ठीक नहीं है, यह ठीक नहीं है, यह ठीक नहीं है, यह ठीक नहीं है" तो एक चीज वह जो हृदय है, जो कहता है कि "नहीं! मेरे को शांति चाहिए, मैं खुश होना चाहता हूं।" वह भी बैठ जाता है कि "मैं कुछ भी करूं यह खुश नहीं होगा, इसको आनंद नहीं मिलेगा।" जब यह हाल हो जाता है और यह बहुत गंभीर बात है, क्योंकि माता-पिता यह बात याद रखें अपने बच्चों को लेकर के। बच्चे याद रखें अपने माता-पिता को लेकर के। पति याद रखे अपनी मिसेज़ को लेकर के, अपनी पत्नी को लेकर के। पत्नी याद रखे अपने पति को लेकर के।

क्योंकि अगर ऐसा माहौल बन गया एक बार तो फिर इस चेन को तोड़ना बहुत मुश्किल है, बहुत मुश्किल है। क्योंकि फिर बैठ जाती है बात कि “मैं कुछ भी करूं यह खुश नहीं होगा, होगी।” अगर यह बात हो गई तो फिर हो गयी। इसलिए "साकत मरैं" — वह लोग जो इस माया में लिपटे हुए हैं, वह जरूर मरेंगे। “संत जन” — जो लोगों का भला चाहते हैं, जो इस दुनिया में भला करने के लिए आते हैं, वह नहीं मरेंगे। और उल्टा क्या भरेंगे वह, करेंगे क्या — "भरि भरि राम रसायन पीवैं" तो उस ज्ञान को, उस ज्ञान के प्याले को भर-भर के उसके अंदर का जो आनंद है वह ले रहे हैं। अगर हरि मरे तो हम मरेंगे — "हरि मरिहैं तो हमहूँ मरिहैं। हरि न मरैं हम काहे कूँ मरिहै" — अगर जब हरि नहीं मरेंगे — अगर हरि मरेंगे तो हम मरेंगे। अगर हरि नहीं मरेंगे तो हम नहीं मरेंगे।

तो आपको लगता नहीं है कि इसमें एक बात स्पष्ट हो रही है इस भजन में, जो कबीरदास जी कह रहे हैं एक बात स्पष्ट हो रही है कि "अपने आप को उस हरि में खो दो, उस हरि से जोड़ लो, जो तुम्हारे अंदर का हरि है।” बाहर का हरि नहीं, अंदर का जो हरि है, जो अंदर तुम्हारे, इस सारे विश्व को चलाने वाला जो बैठा है अगर उसके साथ तुम जुड़ गए, उसके साथ तुम मिल गए तो यही होगा। "हरि न मरैं तो हम काहे कूँ मरिहै" — कैसे मर सकते हैं क्योंकि उनके साथ जुड़ गये, उनके साथ एक हो गये और "कहैं कबीर मन मनहि मिलावा" — अगर मेरा मन उस हरि के साथ, उस शक्ति के साथ मिल गया तो हम "अमर भये सुख सागर पावा!" हम अमर हैं उसके बाद फिर हम मरेंगे नहीं और सुख का सागर हमारे साथ रहेगा।

कितना सुंदर भजन है यह और मैंने गाया है इस भजन को। मेरे को लगता है कि सचमुच में अगर हम अपने जीवन के अंदर यह कर पाये कि हम उससे एक हो गए। हम माया से एक होने की कोशिश तो करते ही हैं भाई!! यह जो सारा संसार है इसके जितने भी रीति हैं, रिवाज़ हैं यह सबकुछ — अब देखिये, क्योंकि लोग फेसबुक पर हैं, इंस्टाग्राम में है, ट्वीट पर हैं तो लोग विदेश से अपनी फोटो देते हैं, अपनी सेल्फीज़ देते हैं, हिंदुस्तान से अपनी सेल्फीज़ लोग देते हैं। धीरे-धीरे सब एक जैसे हो रहे हैं। कहीं भी चले जाओ लोग देखने में भी एक-जैसे लग रहे हैं। क्योंकि एक-दूसरे का जो फैशन है, यह है, वह है, सारी चीजें एक दूसरे के जैसे लग रहे हैं। उससे पहले यह नहीं था। जो कल्चर था, जो लोकल कल्चर था वह गायब हो रहा है — इसे कहते हैं "टेक्नोलॉजी।" यह टेक्नोलॉजी तुम्हारे कल्चर को गायब कर रही है।

एक आदमी के पास एक माइक्रोवेव ओवन था तो हिंदुस्तानी खाना उसमें वह बनाता था। एक बार पूछा गया उससे कि "तुम माइक्रोवेव में हिंदुस्तानी खाना बनाते हो, अच्छा तो नहीं लगता होगा?"

तो कहा, "जी! स्वाद तो बहुत ही खराब है, परन्तु खाना बहुत जल्दी बन जाता है।”

हमने कहा कि, "तुम खाना स्वाद के लिए खाते हो या घड़ी के लिए खाते हो! तुम घड़ी क्यों नहीं खा लेते!" घड़ी से ही तुमको इतना प्रेम है अगर, टाइम से ही इतना प्रेम है और टाइम को तुमसे प्रेम नहीं है, टाइम को तुमसे प्रेम नहीं है। टाइम तो चलता रहेगा, चलता रहेगा तुम्हारे लिए इंतजार नहीं करता है कभी। परन्तु तुम उस टाइम से प्रेम करते हो कि "मेरा टाइम यहां हो जाएगा, तो यह हो जाएगा, यह हो जाएगा, यह हो जाएगा!" लोग भाग रहे हैं, भाग रहे हैं, भाग रहे हैं, भाग रहे हैं, भाग रहे हैं, सब भाग रहे हैं, पर किसी को यह नहीं मालूम कि कहां जा रहे हैं! जब यह दशा हो गई तो आदमी फिर चाहता है कि उसको शांति मिले, उसको सुकून मिले, कैसे मिलेगा ? जब वह भाग रहा है, पर उसको यह नहीं मालूम कि वह ठीक है, नहीं ठीक है, क्या है उसकी जिंदगी में, क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है, टाइम के पीछे पड़ा हुआ है — “टाइम, टाइम, टाइम, टाइम, टाइम, पर क्यों बचा रहा है टाइम, क्या करेगा उस टाइम का वह ?” उसको यह खुद ही नहीं मालूम।

यह जो कोरोना वायरस की वजह से सब लोगों को घर पर बिठा दिया, अब लोगों के हाल खराब हो रहे हैं, लोग बैठ नहीं सकते, "हमको बाहर निकलना है, हमको यह करना है, हमको वह करना है, यह करना है, वह करना है , वह करना है।" इस सब के पीछे लगा हुआ है। कुछ भी परिस्थिति हो, कहां से तुम ठीक हो बाहर से या अंदर से ? बाहर परिस्थिति बदलेगी कुछ भी हो सकता है बाहर। पर अंदर तुम्हारे क्या हो रहा है यह देखने की बात है। अंदर तुम किस चीज से जुड़े हुए हो, यह देखने की बात है। जबतक इस बात को पहचानोगे नहीं अपने जीवन में, जानोगे नहीं अपने जीवन में, अमल नहीं करोगे, जो कबीरदास जी ने कहा कि —

कहैं कबीर मन मनहि मिलावा

मेरा मन उनके मन से मिल गया है, जो उनकी ख़्वाहिश है, वह मेरी ख़्वाहिश है। वह जिसको मैं कहता हूं कि जो जरूरत है, चाहत नहीं जरूरत। क्योंकि तुम्हारी भी कुछ जरूरत है, पर तुम उनको चाहत समझते हो। वह चाहत नहीं है, चाहत अलग होती है, जरूरत अलग होती है और जरूरत जो तुम्हारी हैं — शांति के लिए तुम्हारी जरूरत है, तुमको जरूरत है शांति की। बिना शांति के अगर तुम अपने जीवन के अंदर रहना चाहो तो बड़ी गड़बड़ होगी।

तुमको चैन की जरूरत है, तुमको सुख की जरूरत है ? चाहत क्या है तुम्हारी ? लाल साड़ी, पीली शर्ट, यह तुम्हारी चाहतें हैं। यह मिलें न मिलें इनसे कुछ नहीं होना है, पर अगर जो तुम्हारी जरूरत है — हवा तुम्हारे लिए जरूरी है, हवा नहीं मिली तो तुम मर जाओगे। भोजन तुम्हारे लिए जरूरी है, भोजन नहीं मिलेगा तो तुम मर जाओगे। पानी तुम्हारे लिए जरूरी है, पानी नहीं मिलेगा तो तुम मर जाओगे। तो जो तुम्हारी जरूरतें है, शांति भी ऐसी ही तुम्हारी जरूरत है। और अगर शांति नहीं मिली तो भटकते रहोगे। अंदर की जो चीज है अगर वह नहीं मिली तो भटकते रहोगे, खोजते रहोगे परन्तु तुम खोजोगे, कैसे खोजोगे तुम यह भी नहीं जानोगे कि तुम खोज रहे हो। तुमको यह भी नहीं पता कि किस चीज को खोज रहे हो! पर तुमको सिर्फ यह मालूम पड़ेगा कि “हां मैं किसी चीज को ढूंढ जरूर रहा हूँ, क्या है वह मेरे को नहीं मालूम।” जब ऐसी परिस्थिति हो जाती है मनुष्य की तो उसको इस संसार में धक्के मिलेंगे। और क्या मिलेगा ? फिर वह अपने से कैसे बात करेगा, अपने को वह क्या कहेगा, अपने को वह क्या समझाएगा मनुष्य कि “मेरे को यह मौका मिला, यह जीवन मिला और मैंने क्या किया, क्या किया, क्या पाया ?” आज जो मैं जिया हूं इस संसार के अंदर 60 साल, 70 साल, 80 साल, 90 साल, 100 साल — 36500 दिन (100 साल अगर जीयें तो) तो आज मेरे पास क्या है हर एक दिन को यह दिखाने के लिए कि मैंने यह हासिल किया है! कुछ नहीं रह गया।

मैंने देखा है अच्छे-अच्छे लोगों को देखा है, पड़े हुए हैं पलंग पर, कई अस्पताल में पड़े हुए हैं, कोई घर पर पड़ा हुआ है। लोग आस-पास भी ज्यादा नहीं रहते। सब शांत कोई बोलता भी नहीं है। आँख बंद है तो आँख बंद है। स्वांस ले रहे हैं, मशीन लगी हुई है — पिंग; पिंग; पिंग; पिंग; पिंग; वह यह दिखा रही है अभी जीवित है, अभी जीवित है, अभी जीवित है। चारपाई से उठ नहीं सकते। क्या हासिल कर लिया ? तो उस समय यह अपबल, तपबल और बाहुबल इसका क्या करोगे ? इसी में तो सारी जिंदगी लगा दी। अपबल — "मैंने यह कर लिया, मैंने वह कर लिया!" तपबल — “मैंने यह हासिल किया है, मैंने वह हासिल किया है!" यह सारे बल हैं और बाहुबल — एक्सरसाइज मशीन में जाते हैं। यह हो रही है एक्सरसाइज, कोई वेइट्स ऊपर-नीचे कर रहा है। अपबल, तपबल और बाहुबल — इन्हीं बल के पीछे सारा संसार लगा हुआ है।

परन्तु तुम समझते हो कि जब सौ साल के बाद तुम उस चारपाई पर बैठे होगे, तो इनमें से एक भी बल काम करेगा! कैसे काम करेगा ? कैसे काम कर सकता है ? बाहुबल का तो नाम मत लो। तप — अगर लगी हुई है कोई सर्टिफिकेट तुम्हारे दीवाल पर तो वहीं की वहीं लगी रहेगी। वह क्या करेगी ? कुछ नहीं। “तुमने यह कर लिया, तुमने वह कर लिया” — कौन आएगा तुमको पूछने के लिए क्या कर लिया ? कोई नहीं! यही हालत होनी है, तो उस समय कौन काम आएगा ? उस समय क्या काम आएगा ? अगर उस समय हृदय भरा हुआ नहीं है आनंद से तो और चीजें क्या काम आयेंगी ? कुछ काम नहीं आएगा।

यह सोचने की बात है, विचार करने की बात है। और अब जैसे मैंने कहा कि “पीस एजुकेशन प्रोग्राम हिंदी में भी करेंगे।” उसमें थोड़ा समय लगेगा, उसको सेट करने में। क्योंकि हिंदी में पूरा नहीं है वह काफी हद तक वह अंग्रेजी में है। परन्तु उसको भी करेंगे, प्रेज़न्ट करेंगे सभी लोगों को।

सभी श्रोताओं को मेरा बहुत-बहुत नमस्कार!

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