आना, जाना इस संसार के अंदर जैसे लहर आती जाती रहती हैं, जैसे ये बादल आते जाते रहते हैं, जैसे ये सूरज सबेरे चढ़ता है और शाम को ढल जाता है — ये है तुम्हारी जिंदगी। ये एक दिन का सूरज का चढ़ना है — ये एक सबेरा है, एक दोपहर है, एक शाम है। सूरज के चढ़ने से पहले भी अंधेरा था और सूरज के ढलने के बाद भी अंधेरा हो जायेगा। पर ये जो दिन मिला है, ये जो जीवन रूपी दिन मिला है, ये जो सूरज चढ़ा है, क्या करोगे तुम इस दिन में ? क्या करोगे तुम आज ? क्योंकि ये है तुम्हारा आज। ये जीवन, ये शरीर, इस जीवन का मिलना है तुम्हारा आज, ये है तुम्हारा सवेरा, और एक दिन दोपहर भी होगी और फिर सूरज ढलेगा और शाम भी होगी, और शाम के बाद फिर रात भी होगी।
क्या किया तुमने आज ?
जो तुम कर रहे हो अपने जीवन में, अगर तुमने उस ‘हंस’ को, जो तुम्हारे अंदर विराजमान है, अगर उसको नहीं जाना तो तुम्हारा आना-जाना बराबर है। क्या आना-जाना ?
मुट्ठी बांधे आया जग में, हाथ पसारे जायेगा।
सोचो! सोचने की बात है! अगर विचार करोगे, बच जाओगे। विचार करोगे, बच जाओगे।
एक छोटा-सा कुत्ता था। तो एक दिन टहलते-टहलते, टहलते-टहलते, टहलते-टहलते, वो जंगल में चला गया। और जब जंगल में चला गया तो उसको लगा कि बाप रे बाप! मैं इतने गहरे जंगल में आ गया हूं। खतरा लगा उसको! खतरा लगा तो वो सूंघा उसने। कुत्ता तो है ही! सूंघा उसने। तो उसको गंध ऐसी आई जैसे पहले कभी आयी नहीं थी। तो उसको लगा कि ये कोई शेर-वेर है, जो मेरे को खायेगा। तो आगे चलता गया, चलता गया, चलता गया, चलता गया। आगे उसको मिला एक हड्डियों का बहुत बड़ा ढेर! तो वहां जाकर के बैठ गया। बैठ गया।
अब सोचने लगा, "बचना है, सोच ले!"
इतने में आया शेर पीछे से गुर्राता हुआ।
तो कुत्ता बोलता है, "वाह, वाह, वाह!" कुत्ता बोलता है, "वाह, वाह, वाह! इतने शेरों को खा गया, अभी भी मेरी भूख खत्म नहीं हुई है। एक और शेर मिल जाए तो हो सकता है, मेरी भूख खत्म हो जाए।"
जैसे ही शेर ने ये सुना कि एक छोटा-सा कुत्ता और उसके सामने हड्डियों का ढेर! तो उसको भी लगा कि "हो सकता है, ये मेरे को खा जाय।"
तो शेर बेचारा मुड़ा और चल दिया वहां से दुम दबाए हुए। एक बंदर पेड़ पर चढ़ा हुआ ये सब देख रहा था। बंदर आया नीचे, गया शेर के पास और शेर को उसने बताया, "ये तेरे को बेवकूफ बना रहा है। ये छोटा कुत्ता तेरे को बेवकूफ बना रहा है। ये कह रहा था इसलिए सिर्फ, ताकि तू डर जाये। इसने किसी शेर-वेर को नहीं खाया।"
शेर को बड़ा गुस्सा आया। शेर को बड़ा गुस्सा आया कि मेरे को बेवकूफ बनाता है।
तो बंदर ने कहा, "चलो, वापिस चलो, खाने के लिए उसको!"
शेर ने कहा, "तू बैठ मेरी पीठ पर। चलते हैं।"
बंदर बैठ गया शेर की पीठ पर और चलने लगे।
अब कुत्ता वहीं का वहीं था। सोचा, "फिर सोच ले! अब की गया! इस बार तो बंदर भी आ रहा है। इसी ने कहीं गड़बड़ की होगी। सोच ले!"
तब कुत्ता बोलता है कि "वो बंदर गया कहां ? उसको आधे घंटे मैंने पहले भेजा था शेर लाने के लिए, अभी तक वापिस नहीं आया।"
और जैसे ही शेर ने सुना, उठाया बंदर को, फेंका नीचे और भागना शुरू कर दिया उसने।
सोच लो! क्यों सोच लो ? वो तो शेर था। तुम्हारे आसपास काल मंडरा रहा है। काल! इंतजार कर रहा है, "कब मौका मिले ?" इंतजार कर रहा है, "कब मौका मिले ?" तुम हो, तुमको परवाह ही नहीं है, क्योंकि तुम घमण्ड के नशे में चूर हो। घमण्ड हो जाता है न, घमण्ड! "मैंने ये कर लिया, मैं ये हूं! मेरा ये है, मेरा वो है!" और भूल जाते हैं कि यहां क्यों आए ? क्यों आए ? क्यों तुम्हारा जन्म हुआ ? इसके लिए नहीं। अरे, ये तो कुत्ते के पास भी है। कबीरदास जी कहते हैं, कि "तुम्हारा जन्म हुआ है, ताकि तुम उस चीज को पहचानो, उसको जानो और अपने जीवन को सफल बनाओ।" इसीलिए तुम्हारा जन्म हुआ।
देखो इस दुनिया को। आज जितने स्कूल हैं इस दुनिया के अंदर, पहले कभी नहीं थे। और जितनी क्रांति है इस संसार के अंदर, पहले कभी नहीं थी।
लोग तो कहते हैं न कि "अगर लोग पढ़े-लिखेंगे तो अच्छे बनेंगे।"
अरे, अब इतने स्कूल हैं तो क्रांति क्यों फैल रही है ? पढ़ने-लिखने से क्रांति का कोई संबंध नहीं है। क्रांति मन की अशांति के कारण फैलती है। जबतक मन शांत नहीं होगा लोगों का, जबतक शांति का अहसास नहीं होगा उनको अपने जीवन के अंदर, क्रांति फैलती रहेगी। तुम्हारे जीवन के अंदर भी क्रांति है। तुमको भी परेशान करती है। बिना बात के परेशान करती है। और तुम्हारे घट में है क्या ? अलख पुरुष अविनाशी! और तुम उसको जानते नहीं हो। अगर तुम उसको जान जाओ, तभी तुम्हारे जीवन के अंदर शांति आयेगी। उससे पहले नहीं आ सकती। घमण्ड करने से कुछ नहीं होगा इस संसार के अंदर!
एक वैद्य था — हकीम! उसको मालूम था कि जब वो, उसका टाइम आने वाला है, मरेगा। तो उसको मालूम था कि आयेगा, यमराज का दूत आयेगा। और उसको ये भी मालूम था कि वो एक ही को ले जा सकता है, दो को नहीं ले जा सकता। तो उसने अपना पुतला बनाया और ऐसा पुतला बनाया, ऐसा पुतला बनाया, ऐसा पुतला बनाया कि दोनों एक ही तरीके से दिखाई दें। और जब समय आया तो वो भी लेट गया अपने पुतले को साथ में रख दिया।
आया यमराज का दूत लेने के लिए।
अब वो भी दुविधा में पड़ गया कि "एक ही को ले जाना है, यहां तो दो हैं। किसको ले जाऊं ?"
अब वो भी पड़ा हुआ है वहां, कुछ बोल नहीं रहा है। अपने पुतले की तरह ही वो भी चुपचाप है।
तब यमराज का दूत बोलता है, "हकीम जी! मान गये आपको। ऐसा पुतला बनाया है, ऐसा पुतला बनाया है कि हम भी अचंभे में पड़ गये! पर आप एक चीज भूल गये।"
अब हकीम से रहा नहीं गया। बोलता है, "क्या भूल गया ?"
यम का दूत बोलता है, "ये भूल गया! चुप रहना भूल गया। घमण्ड है तेरे को इतना कि तू चुप नहीं रह सका। तेरे को बोलना था। क्या भूल गया ? यही भूल गया कि तू घमण्ड के अधीन है। चल!" ले गया। यही मनुष्य के साथ होता है।
- प्रेम रावत
प्रेम रावत:
एक बार एक काफिला था, जो एक जगह था। तो एक दिन एक लड़का, एक बच्चा, जो काफिले का सरदार था, उसके पास आया और उसने अपने सरदार से कहा कि "सरदार! मेरा एक सवाल है।"
कहा, "क्या ?"
कहा, "मैं देखता हूं कि कुछ लोग — जो अच्छा महसूस करते हैं, जो अच्छे हैं, कई बार वो बुरा काम करते हैं, बुरी चीज करते हैं और वो लोग, जो बुरी चीज करते हैं, कई बार वो अच्छा करते हैं। जो लोग खुश रहते हैं, वो कई बार दुःखी हो जाते हैं और जो लोग दुःखी रहते हैं, फिर कई बार वो खुश हो जाते हैं। ऐसा क्यों है ?"
सरदार ने कहा, "हर एक मनुष्य के अंदर दो शेर हैं। एक अच्छा शेर है और एक बुरा शेर है। और दोनों शेर आपस में लड़ते हैं।"
उसने सोचा। सोच के वो बोलता है, "फिर क्यों लड़ते हैं ?"
कहा, "इसलिए लड़ते हैं कि तेरे पर काबू कर सकें।"
फिर सोचा उसने। कहा, "सरदार! जीतता कौन है ? कौन-सा शेर जीतेगा ? अंत में कौन-सा शेर जीतेगा ? अच्छा वाला या बुरे वाला ?"
सरदार ने कहा, "जिस शेर को तू खिलाएगा, वही जीतेगा।"
कहानी तुमको पसंद आयी ? बुरे शेर को खिलाओगे, वो जीतेगा। वो तुम पर काबू करेगा, तुम पर राज करेगा। अच्छे शेर को खिलाओगे, वो जीतेगा, वो तुम पर काबू करेगा, तुम पर राज करेगा। अच्छे वाला शेर अच्छा है, बुरे वाला शेर बुरा है।
समझे ? तो किस शेर को खिलाते हो तुम ?
बुरे वाले शेर को खिलाओगे, वही जीतेगा। तुमको गुस्सा करने में कितनी देर लगती है ? तुमको निराश होने में कितनी देर लगती है ? क्या मतलब है इसका ? कौन-से शेर को खिला रहे हो ?
कई लोग तो ये समझते हैं, "हमें बुरे शेर को कुछ नहीं खिलाना चाहिए।"
तो वो किसी को कुछ नहीं खिला रहे हैं। अच्छे शेर को खिलाना जरूरी है! अगर अच्छा चाहते हो तुम अपने जीवन में तो अच्छे शेर को खिलाना जरूरी है! बुरे शेर से संबंध मत बनाओ! उससे न बात करो, न उसके पास जाओ, न उसको कहो कि ‘‘तू बुरा शेर है!’’ अच्छे शेर की देखभाल करो, उसको खिलाओ, हर समय उसको खिलाओ, ताकि वो बलवान हो!
तो अगर तुम यह महसूस करते हो कि तुम बड़ी आसानी से निराश हो जाते हो, अगर तुम यह महसूस करते हो कि बड़ी जल्दी से गुस्सा हो जाते हो, आशाएं टूट जाती हैं, अपने आपको तुम भ्रमित पाते हो, कभी यहां की सोचते हो, कभी वहां की सोचते हो, कभी — ये कैसा है, वो कैसा है ? इसका क्या उत्तर है ? ये ऐसा है, वो वैसा है — इन सब चीजों में लगते हो। इसका मतलब है कि तुम बुरे शेर को खिला रहे हो।
अच्छे शेर को खिलाओगे, तब वो कहेगा, "तेरे को इसकी क्या फिक्र है, उसकी क्या फिक्र है ? अगर तेरे को फिक्र करनी है तो इसकी फिक्र कर, जो तेरे अंदर आ रहा है, जा रहा है। जिसके न आने से तू कुछ भी नहीं कर पायेगा!"
अरे! विटामिन तो ठीक है — ये ऐसी विटामिन है कि इसके बिना एक दिन भी नहीं चलोगे तुम। एक दिन तो छोड़ो, तीन मिनट! तीन मिनट! और ये जब तक चल रहा है, इसकी तरफ तुम ध्यान नहीं देते हो और जब ये बंद होने लगता है, तब तुम्हारा ध्यान जायेगा। तो इसका मतलब है कि तुमने अपने सारे जीवन भर बुरे शेर को खिलाया। वो तुम्हारा बलवान है, वो तुमको खाएगा और उससे बड़ा नर्क हो नहीं सकता! जो आदमी स्वर्ग में बैठा-बैठा नहीं जानता है कि वह स्वर्ग में है, इससे बड़ा नर्क क्या हो सकता है ?
तो समझो! ध्यान देने से सबकुछ होगा। उस चीज को अपनाने से सबकुछ होगा। जो तुममें अच्छाई है, उसको उभरकर बाहर आने दो। जितना बाहर आएगी, उतना ही तुम्हारे जीवन के अंदर और सुंदरता आएगी। जो शांति है, उसको आने दो बाहर। अशांति को नहीं।
ये सारी चीजें तुममें हैं। तुममें बुराई भी है और तुममें अच्छाई भी है। और कितनी बुराई है और कितनी अच्छाई है ? हर एक व्यक्ति में, हर एक मनुष्य में 50 प्रतिशत अच्छाई है और 50 प्रतिशत बुराई है।
कोशिश करो! कोशिश करो इस शांति के लिए, इस आनंद के लिए, अपने जीवन को सफल बनाने के लिए। इसमें ज्यादा समय नहीं लगता। इसमें ज्यादा समय नहीं लगता। अच्छाई में रोशनी जब आती है, कितना समय लगता है और रोशनी जब जाती है तो अंधेरे को आने में कितना समय लगता है! रोशनी अंधेरे को हटाती है। ये तो दो बहनें हैं — एक तरफ रोशनी है और एक तरफ अंधेरा है। बस, फ़र्क इतना है कि ये एक-दूसरे को नहीं जानते। पर रहते बहुत नजदीक हैं। बहुत नजदीक हैं! जैसे ही रोशनी जाती है, तुरंत अंधेरा आता है। और जैसे ही — जब रोशनी चली जाती है, अंधेरा ही अंधेरा हो जाता है। बहुत नजदीक हैं एक दूसरे के पर एक दूसरे को नहीं जानते। क्योंकि अंधेरे ने कभी रोशनी को नहीं देखा, रोशनी ने कभी अंधेरे को नहीं देखा।
अच्छाई भी है, बुराई भी है। तुम्हारी अच्छाई, तुम्हारी बुराई को नहीं जानती और तुम्हारी बुराई तुम्हारी अच्छाई को नहीं जानती पर रहते ये एक ही में हैं। तुममें रहते हैं। हममें रहते हैं। और ये हमेशा कोशिश करनी चाहिए कि मैं उस शांति तक पहुंच सकूं, जो मेरे अंदर अच्छाई है, उस तक मैं पहुंचूं, उसको मैं आगे बढ़ावा दूं और आनंद लो! क्योंकि इसका — इसका सारा सार यही है। सच्चिदानन्द! सत् ये है और जब मेरा चित्त इसमें लगेगा तो क्या मिलेगा ? आनंद मिलेगा। ये सारा — चक्कर ही सारा आनंद का है।
मैं कह रहा था न, दो मौज हैं। एक तो दुनिया की मौज है और एक अंदर की मौज है। अंदर की मौज करोगे तो अंदर की मौज में कितने भी तुम बुड्ढे हो जाओ, कोई अंतर नहीं आएगा।
प्रेम रावत:
हमको हमारे जीवन में एक आदत है और वह आदत है भूलने की। हम भूल जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि हम कौन हैं। हम भूल जाते हैं कि हमारा स्वभाव क्या है ? हम भूल जाते हैं कि हमारी प्रकृति क्या है ? हम भूल जाते हैं कि हमारी चाह क्या है ? हम भूल जाते हैं कि हमारी जरूरत क्या है ? तो कौन-सी ऐसी चीज है, जिसके भूल जाने से हमारे जीवन के अंदर एक ऐसा माहौल पैदा होता है कि हम समझ नहीं पाते हैं कि ये सबकुछ क्या है ? क्या हो रहा है ? मेरे साथ गलत क्यों होता है ? किसी के साथ सही क्यों होता है ?
ये सारी बातें हम भूल जाते हैं। बात ये है! और सच्चाई है ये! अज्ञानता तुमसे दूर नहीं है और ज्ञान भी तुमसे दूर नहीं है। सुख भी तुमसे दूर नहीं है और दुःख भी तुमसे दूर नहीं है। तुम जहां जाते हो, जो कुछ भी तुम करते हो अपने जीवन के अंदर — जहां भी जाते हो, जो कुछ भी करते हो — सुख और दुःख, दोनों तुम्हारे साथ चलते हैं। अज्ञान और ज्ञान तुम्हारे साथ चलते हैं। अच्छाई और बुराई तुम्हारे साथ चलती है।
अब मनुष्य हो, मनुष्य के नाते तुम्हारी यह प्रकृति है कि दुःख तुमसे सहन नहीं होगा। तुम दुःख को सहन नहीं कर सकते हो। मैं जो बोल रहा हूं ये बात — मैं कितनी ही जेलों में जाता हूं, लोगों को सुनाने के लिए कि जिस शांति की तुमको तलाश है, वो शांति तुम्हारे अंदर है और पहले से ही मौजूद है। उन जेलों में जो लोग पड़े हुए हैं, उनके लिए आशा क्या नाम की चीज है ?
एक आदमी, जिसको दो सौ पचास साल की कैद है, सजा है। दो सौ पचास साल! अर्थात् वो उस जेल से जिंदा नहीं निकलेगा। चाहे वो किसी की भी प्रार्थना कर ले! समझे न मेरी बात! उसका शव ही बाहर निकलना है। तभी उसको आजादी मिलेगी उस जेल से, उससे पहले आजादी उसके लिए संभव नहीं है। तो ऐसे आदमी को क्या कहोगे ? क्या कहोगे ? क्या समझाओगे उसको ?
पर उसको भी समझाना कि तेरे साथ — तेरे कैद में, तेरे जेल में, तेरे सेल में आशा भी तेरे साथ ही लॉक्ड है और निराशा भी तेरे साथ ही लॉक्ड है। दोनों चीजें! और ये जो दीवालें हैं, ये जो खिड़कियां हैं, ये जो लोहे की सलाखें हैं, तेरे शरीर को तो जरूर काबू में, कैद में रख सकती हैं, परंतु एक चीज है तेरे अंदर, जो कभी कैद नहीं की जा सकती। वो कैद में होते हुए भी फरार है। उसको कभी पकड़ा नहीं और न उसको कोई पकड़ सकता है। ये तो हुई बात उस व्यक्ति की, जो दो सौ पचास साल के लिए कैद में है।
अब चक्कर ये है कि जब उन लोगों की बात, मैं उन लोगों को सुनाता हूं जो कैद में नहीं हैं तो वो तो यही सोचते हैं कि ये तो कैदियों की बात कर रहे हैं, हमारे लिए थोड़े ही लागू है ? ऐसी बात नहीं है। तुम भी कैदी हो! तुम भी कैदी हो! वो जो कैद में है, उसके लिए तो बढ़िया है। उसको तीन टाइम का खाना कहां से आएगा, उसको परवाह करने की जरूरत नहीं है। तुम तो हर दिन वो खाना कहां से आएगा, उसकी चिंता करते हो। अच्छा, दूसरी बात! वहां सिक्योरिटी बहुत बढ़िया है। वहां बिना बुलाए कोई नहीं आएगा। तुम तो अपने घर में सलाखें रखते हो, कुत्ते रखते हो, किसी नाइट ड्यूटी वाले को तनख्वाह देते हो। वहां सब प्रबंध है। और तुम भी कैदी हो। और तुम किस चीज के कैदी हो ? अपनी भावनाओं के कैदी हो। अपने विचारों के कैदी हो। उन चीजों ने तुमको कैद करके रखा हुआ है।
तो प्रश्न ये होता है — प्रश्न ये नहीं है कि ब्रह्म कहां है ? पारब्रह्म परमेश्वर जिसे कहते हैं — प्रश्न ये नहीं है कि वो कहां है ? प्रश्न ये है कि अगर वो तुम्हारे अंदर है, अगर वो तुम्हारे अंदर है तो तुम उसको क्यों नहीं जानते हो ? नहीं ? ये हुआ न प्रश्न ?
दुनिया तो प्रश्न करती है, "है जी! है या नहीं है, हमको नहीं मालूम। आप बताइए। है तो हमको जरा दर्शन कराइए! ये करवाइए, वो करवाइए!"
हम कहते हैं, हम प्रश्न पूछते हैं तुमसे कि अगर तुम्हारे अंदर वो पारब्रह्म परमेश्वर है तो यह कैसे संभव है कि तुम उसको नहीं जानते ? क्या हो रहा है कि तुमने उस पारब्रह्म परमेश्वर को नहीं जाना! क्यों ? क्यों ? कौन-सी ऐसी चीज है इस सारे संसार के अंदर, जो उससे ज्यादा महत्व रखती है कि मैं अपने अंदर स्थित उस ब्रह्म को जानूं! है कोई चीज ? हो सकती है कोई चीज ? हो सकती है कोई चीज ?
प्रेम रावत:
आइंस्टाइन का नाम सुना है कभी ? बहुत बड़ा वैज्ञानिक, साइन्टिस्ट था वो।
उसने कहा है कि "जिस चीज की रचना हुई है, उसको खत्म भी होना पड़ेगा।"
तो ये सारे ब्रह्माण्ड की रचना हुई है और इस सबको खत्म होना पड़ेगा। इसमें पृथ्वी भी आ गई, इसमें सूरज भी आ गया, इसमें चन्द्रमा भी आ गया। सबकुछ, जो तुमको दिखाई देता है और नहीं दिखाई देता है ब्रह्माण्ड में, जब ऊपर की तरफ देखते हो — सब खत्म होगा! पानी भी खत्म होगा, हवा भी खत्म होगी, नमक भी खत्म होगा, धरती भी खत्म होगी। मतलब सबकुछ खत्म होगा! इसकी तुम कल्पना भी नहीं कर सकते। मैं नहीं कर सकता।
अविनाशी वो है कि ये सबकुछ खत्म हो जायेगा, फिर भी वह रहेगा। और अविनाशी न मर्द है, न औरत है, न उसके पैर हैं, न उसका सिर है, न उसको सिर की जरूरत, न उसको पैर की जरूरत, न उसको नाखून की जरूरत, न उसको आँख की जरूरत, न उसको कान की जरूरत। क्योंकि जितनी भी सृष्टियां आकर चली जाएं, वो रहेगा। जो था, जो है और जो रहेगा! जिसका कभी नाश नहीं होगा, उसे कहते हैं — अविनाशी
तुम्हारा दिमाग तो सिर्फ इतना ही बड़ा है। तुम्हारा दिमाग तो सिर्फ इतना ही बड़ा है और जिस दिन तुमको ढंग की चाय नहीं मिलती है, ये दिमाग परेशान हो जाता है। जिस दिन तुम्हारी दाल में थोड़ा-सा नमक ज्यादा हो जाता है तो ये दिमाग परेशान हो जाता है। ये अविनाशी को कैसे समझेगा ? ये अविनाशी को कैसे समझेगा परंतु कहा है कि वही अविनाशी तुम्हारे अंदर है।
और फिर लोग सवाल करेंगे, "अजी! वो अविनाशी हमारे अंदर है तो हमको पता क्यों नहीं लगता?"
एक किताब पढ़ रहा था मैं आज, तो उसमें एक कहानी थी। वो कहानी सुनाता हूं। तो कहानी है, अकबर और बीरबल की!
एक दिन अकबर कहता है बीरबल से कि "अगर भगवान सर्वव्यापक है तो दिखाई क्यों नहीं देता? पता क्यों नहीं लगता, कहां है? बताओ बीरबल!"
अब बीरबल को लगा कि गए! कैसे इसका जवाब दें। तो फिर बीरबल ने कहा, "जी! कुछ दिन की मोहलत दीजिए, हम मालूम करके आपको बताएंगे।"
तो बीरबल गया घर, सिर लटकाया हुआ, दुःखी! कैसे — उसका ये कहना है कि सर्वव्यापक तो है, पर अब इसको कैसे बताऊंगा अकबर को, कैसे दिखाऊंगा, कैसे बताऊंगा कि है ? कैसे उसको prove करूंगा? कैसे साबित करूंगा? अब उसके घर में उसके कुछ रिश्तेदार आए हुए थे और उनका एक लड़का था।
तो लड़के ने कहा, "चाचा बीरबल! क्या बात है, बड़े दुःखी नजर आ रहे हो?"
तो कहा, "मैं दुःखी तो हूं!"
कहा, "क्या हुआ?"
कहा, "हुआ ये कि बादशाह ने ये सवाल पूछा है कि अगर भगवान सर्वव्यापक है, भगवान जब हमारे अंदर है तो हमको दिखाई क्यों नहीं देता ? हमको पता क्यों नहीं है?"
तो लड़का बोलता है, आप चिंता मत कीजिए! कल जाइए आप ठाठ से और बादशाह से कहिए कि "अजी! इस सवाल का जवाब मैं क्या दूंगा, ये मेरा एक छोटा रिश्तेदार है, उम्र में छोटा है, यही आपको बता देगा।"
बीरबल ने कहा, "ठीक है!"
तो दूसरे दिन दोनों गए।
बादशाह हंसा! बीरबल फंसा! कहा, "बीरबल! हमारे सवाल का जवाब है तुम्हारे पास?"
कहा, "हुजूर! मैं क्या आपको जवाब दूंगा, ये तो मेरा रिश्तेदार है, अभी उम्र ज्यादा नहीं है इसकी, यही दे देगा।"
बादशाह बोला, "इतनी बड़ी बात का ये लड़का जवाब देगा ?" बादशाह ने कहा, "ठीक है, जवाब दो!"
तो लड़का बोलता है, "आप बादशाह हैं। हिन्दुस्तान के राजा हैं। आपको इतनी भी कद्र नहीं है कि आपके दरबार में एक मेहमान आया है और आप उसकी जरा ज़र्रानवाज़ी करें!"
तो अकबर को लगा कि बाप रे बाप! तुरंत उसने आज्ञा दी — अच्छा! क्या चाहिए, क्या चाहिए ? क्या चाहिए?
कहा, "ज्यादा नहीं, दो गिलास के — दो दूध के गिलास मंगवा दीजिए!"
दो गिलास लेकर के सिपाही आये और उसके आगे रख दिया।
अब बादशाह कहता है, "जल्दी, जल्दी पीओ आप और हमारे सवाल का जवाब दो!"
कहा, एक मिनट! लड़का बैठा, उस दूध के गिलास में अपनी उंगली डालता है। एक गिलास में एक उंगली और एक गिलास में एक उंगली और उसको ऐसे-ऐसे करने लगता है {उंगली के इशारे से समझाया}। अब घंटा भर बीत गया! बैठे-बैठे बादशाह देख रहा है और उसको लग रहा है कि क्या कर रहा है ये ? दो घंटे बीत गये!
अकबर बोलता है, "मेरे सवाल का जवाब कब दोगे?"
कहा, "धीरज रखिए! अभी तो दो ही घंटे बीते हैं, अभी धीरज रखिए!"
तीन घंटे बीत गये। चार घंटे बीत गये। अब बादशाह से रहा नहीं गया तो कहा, "भाई! क्या कर रहे हो? ये उंगली डाली हुई है दूध के गिलास में। क्या कर रहे हो?"
कहा, "बादशाह! एक बात बताइए, इस दूध में मक्खन है?"
कहा, "हां! है!"
कहा, "मैं मक्खन निकाल रहा हूं!"
बादशाह ने कहा, "ऐसे मक्खन नहीं निकलेगा। ऐसे मक्खन नहीं निकलेगा! इस दूध को जमाना पड़ेगा, तब ये दही बनेगा। दही को फिर बिलोना पड़ेगा, तब जाकर के मक्खन निकलेगा!"
लड़का बोलता है, ठीक इसी तरीके से वो है, पर उसको निकालने के लिए विधि की जरूरत है। अगर तुमको वो विधि नहीं मालूम है तो तुम नहीं जान पाओगे, नहीं समझ पाओगे।
तो अपने आपको जानना — अपने आपको जानना, मतलब आत्मज्ञान!
बिना अपने आपको जाने, बिना आत्मज्ञान के मनुष्य भटक रहा है और भटकेगा।
प्रेम रावत:
मनुष्य के लिए सुख की कोई सीमा नहीं है, दुःख इतना भी, उसको परेशान कर देता है। हर एक चीज के अंदर, हर एक चीज के अंदर सुख भी है, दुःख भी है।
तुम्हारे जीवन में सबकुछ है। तुम्हारे जीवन में सबकुछ भी है और कुछ भी नहीं है। दोनों ही हैं। तुम जब अपने कमरे में जाते हो और कुण्डी बंद करते हो अपने दरवाजे में — आज के बाद याद रखना, तुम अकेले नहीं हो उस कमरे में। कितने हैं उस कमरे में भरे हुए! तुम भी हो, अविनाशी भी है, जीवन भी है और मृत्यु भी है। उस कमरे में सब हैं — ज्ञान भी है, अज्ञान भी है, अंधेरा भी है, उजाला भी है।
अगर उस कमरे को बंद कर दो तुम और सौ ताले लगा दो दरवाजे पर और जैसे ही तुम लाइट बंद करोगे, क्या होगा ? अंधेरा हो जायेगा। नहीं ? कहां से आया अंधेरा ? जब दरवाजा पहले से ही बंद था तो आया कहां से अंधेरा ? क्योंकि वो तुम्हारे दरवाजे बंद करने से पहले ही से अंदर आ रखा था, तुम्हारे साथ ही आया। धर्म भी तुम्हारे साथ है, अधर्म भी तुम्हारे साथ है। सारी चीजें — जहां तुम जाते हो, सब हैं। फ़र्क इतना है, फ़र्क इतना है कि अगर तुम जानते हो कि ये सब साथ हैं तो उसको अपने सीने से लगाओ, जिसको तुम चाहते हो। प्रेम भी तुम्हारे साथ आया है और नफरत भी तुम्हारे साथ आई है। नफरत को तो तुम गले लगाना जानते हो। जानते हो कि नहीं ? नफरत करने में तुमको कितनी देर लगती है ? कितनी देर लगती है ? {चुटकी बजाने जितना समय} परंतु प्रेम को गले लगाना अभी सीखा नहीं।
मक्खन है, पर ऐसे नहीं निकलेगा। घंटे-घंटे बैठे रहो, करते रहो, करते रहो, करते रहो, करते रहो...। ऐसे नहीं निकलेगा। इसकी विधि चाहिए।
अगर तुम जीना सीखना चाहते हो तो प्रेम को गले लगाना सीखो, नफरत को नहीं। ज्ञान को अपने पास बुलाना सीखो, अज्ञानता को नहीं। अभी तो ये सीखा है — अज्ञानता क्या है ? कैसे उसको नजदीक लाया जाये। अपने जीवन में अगर प्रकाश चाहते हो तो प्रकाश को कैसे निकाला जाये ? क्योंकि दोनों हैं! अंधेरा भी है और प्रकाश भी है। अपने जीवन में प्रकाश को लाना सीखो!
आधे से ज्यादा तुम अपनी जिंदगी बदल सकते हो, तीन सेकेण्ड में। तीन सेकेण्ड में! तीन सेकेण्ड में ? सिर्फ तीन सेकेण्ड में। करने से पहले सोचो! सिर्फ तीन सेकेण्ड! क्या करने जा रहे हो ? बस! तीन सेकेण्ड! तीन सेकेण्ड! उसके बाद करो, जो तुमको करना है। पर तीन सेकेण्ड सोचो! क्योंकि गुस्सा भी तुम्हारे साथ है और क्षमा भी तुम्हारे साथ है। तीन सेकेण्ड में तुम चुन सकते हो — गुस्सा चाहिए या क्षमा ? क्षमा प्यार लाएगी। प्यार उजाला लाएगा। उजाला आनंद लाएगा। तीन सेकेण्ड में। और क्योंकि तुम करते पहले हो, सोचते बाद में हो, इसीलिए तुम्हारे जीवन में दुःख रहता है।
है क्या ? ये संसार का स्वभाव है।
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।।
तो तुम कितने बड़े घुन हो, जो बच जाओगे ? अरे! जब वो घुन — जब उसके जीवन के अंदर गेहूं की बोरी आती है। जब घुन कहीं चलते-चलते, चलते-चलते, चलते-चलते पूरी बोरी के पास पहुंचता है कि गेहूं ही गेहूं हैं उसके अंदर, जरा विचार करो, कितना उसको आनंद मिलता होगा।
‘‘हे भगवान! तैंने मेरी सुन ली! इस बोरी में तो गेहूं ही गेहूं है! बैठ के खा-खाकर के मोटा हो जाऊंगा!’’
उसको क्या मालूम कि इस बोरी में जो गेहूं है, उसका आटा बनना है। उसको चक्की में डाला जाएगा और बच्चू! तू भी उस चक्की में पिसेगा! वो घुन क्या खोज रहा है अपने जीवन में ? गेहूं को खोज रहा है और गेहूं बिखरे हुए नहीं, सब एक ही पोटली में मिल गए उसको। इससे बड़ी चीज क्या हो सकती है, उसके लिए ? परंतु जो उसका ख्वाब होगा — छोटे-से घुन का ख्वाब! गेहूं मिल जाए। ऐसा मिल जाए, इधर-उधर भटकना न पड़े। वो सब उसको मिल गया। परंतु उसको ये नहीं पता कि चक्की में पीसना है।
जो कुछ भी हम करते हैं, इसमें दोनों ही गुंजाइशें हैं — अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। अगर हम सोच के काम करेंगे, विचार के काम करेंगे, ये जानकर के काम करेंगे कि हमारी प्रकृति है भूलने की। ये हमारी प्रकृति है भूलने की और मेरे को कोशिश करनी है कि मैं भूलूं न। उस चीज को मैं नहीं भूलूं, जो मेरे लिए जरूरी है। अगर ये याद रहेगा, तुम्हारी जिंदगी के अंदर अपने आप परिवर्तन आएगा। अपने आप परिवर्तन आयेगा!
क्यों ?
जो कुछ भी तुम कर रहे हो, वो उस आनंद के लिए है, क्योंकि ये भी तुम्हारी प्रकृति है। तुम दुःख को नहीं सह सकते हो। याद है, यही मैं कह रहा था शुरुआत में ? तुम दुःख को नहीं सह सकते हो, परंतु सुख की सीमा तुम्हारे में है ही नहीं! अपार सुख तुम सह सकते हो! कोई ऐसे मंदिर में नहीं जाता है कि ‘‘हे भगवान! बहुत ज्यादा सुख दे दिया। अब थोड़ा कम कर दे!’’ मनुष्य के लिए सुख की कोई सीमा नहीं है, दुःख इतना भी, उसको परेशान कर देता है। हर एक चीज के अंदर, हर एक चीज के अंदर सुख भी है, दुःख भी है। पर तुमको — तुमको चुनना है, क्या तुमको चाहिए अपने जीवन में ? सुख चाहिए या दुःख चाहिए ? जिस दिन दुःख चाहिए, दुःख मौजूद है। जिस दिन सुख चाहिए, सुख भी मौजूद है।
प्रेम रावत:
प्रश्न यह है कि तुमने अपनी जिंदगी का क्या प्रबंध किया है ? और मैं ये क्यों कह रहा हूं ? मैं इसलिए कह रहा हूं कि — एक बात पर ध्यान दिया जाय!
मान के चलें कि एक हवाई जहाज ऊपर से जा रहा है। और जहां सामान रखा जाता है हवाई जहाज में, वहां एक बहुत बड़ा बक्सा रखा हुआ है। उस बक्से में भरे हुए हैं पत्थर! और संदूक हवाई जहाज से हट गया है और गिर रहा है। और किस रफ्तार से गिर रहा है ? दो फीट प्रति सेकेंड — प्रति सेकेंड की स्पीड से वो गिरेगा। अंग्रेजी में ‘‘two feet per second, per second.’’ तुम्हारे लिए क्या ? तुम तो अपने जीवन में व्यस्त हो, वो बक्सा गिर रहा है। वो बक्सा गिर रहा है और वो तभी रुकेगा — कब रुकेगा ?
कब रुकेगा वो बक्सा ? मालूम है तुमको ?
जब वो इस पृथ्वी पर आकर टकरायेगा।
और तुम कहां हो ? कहां हो तुम ? कहां हो तुम ? कहां हो ? नहीं मालूम ?
पृथ्वी पर हो। कैसा लगा तुमको, जब मैंने बोला कि वो डब्बा गिर रहा है ?
इस पृथ्वी पर सात बिलियन लोग हैं। और जो-जो जिंदा है, सबके नाम का बक्सा गिर रहा है। अरे! तुम्हारा नाम लिखा है उस पर। वो इधर-उधर नहीं टकरायेगा। वो ठीक तुम्हारे सिर पर फूटेगा। प्रबंध कर लिया है इसका कि ये होगा ? प्रबंध कर लिया इसका ?
ये जानने के बाद तुमने अपने जीवन में क्या प्रबंध किया है ?
अगर तुम अपने जीवन में आनंद चाहते हो तो उसका भी तुमको प्रबंध करना पड़ेगा। अगर तुम अपने जीवन में सुख चाहते हो तो उसका भी तुमको प्रबंध करना पड़ेगा।
कई लोगों ने जीवन की तुलना की है कई चीजों से।
कुछ लोग बोलते हैं कि "यह जीवन जो है यह नदी के समान है, बह रहा है।"
कोई बोलता है कि "यह जीवन नौका के समान है।"
कोई बोलता है कि "यह जीवन जैसे संगीत का कोई instrument होता है, यंत्र होता है उसके समान है।"
कोई बोलता है कि "यह जीवन एक पतंग के समान है।"
सुनो! अगर यह जीवन नौका के समान है तो नौका वालों, इस नौका को डूबना नहीं चाहिए। अगर यह नौका डूब गई तो गड़बड़ होगी।
अगर यह जीवन नदी के समान है — डूब मत जाना। डूब मत जाना!
अगर यह जीवन — जैसे साज़ का कोई यंत्र है, ऊटपटांग मत बजाना। लय से, स्वर ठीक होना चाहिए। ये नहीं है कि अंधाधुंध — टें, टें, टें, टें, टें.... नहीं।
यह जीवन कोई थ्यौरी नहीं है भाई! यह जीवन कोई किताब नहीं है। यह जीवन किसी का आइडिया नहीं है। यह तो जीती-जागती चीज है। और जब तक इस जीवन को पूरा नहीं करोगे, तब तक भटकते रहोगे। कभी इधर जाओगे, कभी उधर जाओगे। कभी ये मन उधर भागेगा। कभी इधर जायेगा, कभी उधर जायेगा, कहीं-कहीं जायेगा, क्या-क्या करेगा — पता नहीं। अब ये दुनिया का सारा चक्कर है। ये दुनिया का सारा चक्कर है। परन्तु जो इससे आगे निकलकर के यह समझ लेता है कि यह जीवन एक थ्यौरी नहीं है, यह कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसको मैं डब्बे में बंद करके रख दूं कहीं। यह तो ऐसी चीज है जो जीती-जागती है। यह तो सचमुच में उपहार है। और मैं अपने जीवन का पूरा-पूरा फायदा उठाऊं। पूरा-पूरा! आधा नहीं, चौथाई नहीं। पूरा-पूरा फायदा उठाऊं। ये मेरे हृदय की इच्छा है। क्या तुम्हारे हृदय की ये इच्छा नहीं है ? कौन ऐसा आदमी है इस संसार के अंदर जिसकी ये इच्छा न हो कि वह अपने जीवन को सफल बनाये ?