प्रेम रावत:
एक किताब है, यह किताब खुली तब, जब तुम पैदा हुए। यह किताब जब इसका पहला कवर, पन्ना नहीं, कवर जो पहले होता है, वो जब खुला — वो कब खुला, जब तुम पैदा हुए। और उसके बाद हर दिन तुमको एक नया पन्ना मिलता है। अब इस पर लिखो। कुछ न लिखो, तब भी यह पलटेगा। इसने तो पलटना है और यह पलटता रहेगा, पलटता रहेगा, पलटता रहेगा, पलटता रहेगा, पलटता रहेगा। कब तक ? जब तक आखिरी पन्ना पलट नहीं जाता और वह आखिरी पन्ना कब है ? जब यह स्वांस का आना-जाना बंद हो जायेगा। यह है फाइनल।
इसके बाद तुम्हारा कोई नाता नहीं है। इस सारे संसार से सारे रिश्ते तुम्हारे टूट जायेंगे। तुमको कोई जलाये। तुम ‘पें’ नहीं करोगे। कई लोग हैं, जब वो डाक्टर की सूईं देखते हैं, उनको बड़ा डर लगता है और जब यह स्वांस आना-जाना बंद हो जायेगा तो वो चाहे हजारों सूईं लगा दें, तुमको कुछ नहीं होगा। कोई डरेगा नहीं। आग लगा दे, कोई डर नहीं। कहां गये ?
बात यह है कि यह सबको मालूम है कि यह होना है। जब हम छोटे होते हैं, चार साल, पांच साल, छः साल के तो इस तरफ हमारा ध्यान नहीं जाता है। व्यस्त हैं, खेलने में, कूदने में, सीखने में, खिलौनों में। फिर थोड़े बड़े होते हैं, स्कूल जाते हैं, उसी में इतना व्यस्त हो जाते हैं कि इसके बारे में हम सोचते भी नहीं हैं। उसके बाद जवान होते हैं, तो जवानी का नशा चढ़ता है। और जब जवानी का नशा चढ़ता है उसमें मरने की तो बात ही नहीं है। उलटा, मतलब उलटा। लोग ऐसे-ऐसे मोटर साइकिल चलाते हैं या ऐसे-ऐसे कार चलाते हैं, तेज चलाते हैं, ये करते हैं, वो करते हैं। कोई कहीं से कूद रहा है, कोई कहीं से कूद रहा है। मतलब, ध्यान ही नहीं है। हो ही नहीं सकता है। एक समय आता है और यह अहसास होने लगता है कि यह पुस्तक जो है न, इसका आखिरी पन्ना है।
तब समय का ख्याल आता है। जब समय का ख्याल आता है तब अहसास होता है कि समय कितनी तेजी से चल रहा है। और आते-आते-आते-आते-आते आते, जैसे ही, और जैसे ही पन्ने पलटते हैं और किताब का अंत आने लगता है, उतना ही समय ऐसा लगता है कि और तेज भाग रहा है, और तेज भाग रहा है, और तेज भाग रहा है, और तेज भाग रहा है।
अच्छा-अच्छा,... ये मनुष्य की बात है क्योंकि समय तो उसी रफ्तार से चलता है। न वो ज्यादा तेज चलता है, न वो धीरे चलता है। वो एक ही रफ्तार से चल रहा है परंतु मनुष्य ही एक ऐसा है जिसको यह अहसास होता है कि अब धीरे धीरे चल रहा है, अब तेज चल रहा है। अब ये चल रहा है, अब वो चल रहा है। तो मतलब, मनुष्य की हालत यह है कि वो किसी भी इस संसार के दायरे में स्थायी नहीं है। कोई ऐसी चीज नहीं है उसके संसार के अंदर जिससे कि वो नाप सके कि मैं अब इतनी दूर हूं, यहां से मैं इतनी दूर हूं, मैं यहां से अब इतनी दूर हूं। अब यहां से इतनी दूर हूं। ना!
यह तो वो वाली बात हो गयी कि जैसे ही वो उस किताब के अंत में आने लगता है तो उसको लगता है कि इसमें तो ज्यादा पन्ने ही नहीं बचे। और जितने पन्ने निकल गये, उसको वो गिन ही नहीं सकता। उसकी कोई कदर ही नहीं है। उसको ये नहीं है कि मैं कितना भाग्यशाली हूं कि मेरे को 70 साल मिले, 80 साल मिले, 40 साल मिले, 50 साल मिले, 60 साल मिले। ध्यान ही नहीं है। क्या देखता है उसमें भी ? कितने बचे हैं ?
तो जो कितने हैं, इस चीज को जानता ही नहीं है वो धनवान कैसे बनेगा ? क्योंकि उसके लिए जितना आये, उतना ही कम है।
जिस दिन तुम इस संसार को छोड़ के जाओगे, इसमें सबसे बड़ी चीज क्या है ? रोना तो तुमको आता है न कि तुमको बच्चे छोड़ने पड़ेंगे! अपनी बीवी को छोड़ना पड़ेगा या अपने पति को छोड़ना पड़ेगा या अपने मित्रों को छोड़ना पड़ेगा! कोई है ऐसा इस संसार के अंदर — कोई है ऐसा इस संसार के अंदर, जो सचमुच में, सचमुच में ये कहे कि दुःख मुझे सबसे बड़ा इसका, इस संसार से जाने का ये है कि "मेरे को अपने आपको छोड़ना पड़ेगा!"
क्योंकि उसने समझ लिया है। उसको, उसके अंदर से संतुष्टि है। बाहर से नहीं, अंदर से संतुष्टि है। और अगर ऐसा हो गया तो फिर उसके लिए वाह-वाह है।
Text on screen:
हर दिन तुमको एक नया पन्ना मिलता है
अब इस पर लिखो चाहे कुछ न लिखो
यह पलटता रहेगा। कब तक ?
जब तक इस स्वांस का आना-जाना बंद न हो जाए।