ऐंकर : कुछ लोगों की नजर में जो चीज सही होती है, वही चीज दूसरे लोगों की नजर में गलत होती है। सही और गलत की पहचान कैसे करें ?
प्रेम रावत जी : सही तो सबके लिए सही होना चाहिए। और सही वो है कि ‘‘तुम भी जीवित हो, मैं भी जीवित हूं। तुम भी मनुष्य हो, मैं भी मनुष्य हूं।’’ इस संसार ने सबके अंदर बंटवारा कर दिया! और बंटवारे के तुम नतीजे में हो! क्या बंटवारा कर दिया ? तुम मर्द हो, तुम औरत हो! क्यों कर दिया बंटवारा ?
आए एक ही देश से, उतरे एक ही घाट।
हवा लगी संसार की, हो गए बारह बाट।।
एक होना चाहिए, अनेक नहीं। एक! जबतक इस संसार के अंदर एकता नहीं होगी, ये लड़ाइयां बंद नहीं होंगी। शांति का मतलब, लड़ाई बंद करना नहीं है। शांति तो हर एक मनुष्य के अंदर होती है। पर मनुष्य लड़ता इसलिए है, क्योंकि उसके अंदर भी अशांति है। आदर चला गया। आज क्या हो गया ?
"तू अमीर है, तू गरीब है!" फर्क क्या है गरीब में और अमीर में ?
मैं बताऊं ? मैं बताऊं ? गरीब ठाट से सोता है! गरीब ठाट से — उसको न भैंस की चिंता है, न भैंसे की चिंता है। न चारे की चिंता है! खाना मिल गया, उससे वो संतुष्ट है और खूब खर्राटे मार के सोता है। उसको तो कहीं — उसके लिए तो सारा संसार एक बिस्तर है। कहीं भी लेट जाएगा, कहीं भी सो जाएगा। हमारे लिए बिस्तर बड़ी सीमित जगह में है। जब वो मिलेगा, तभी उसके ऊपर बैठ करके सोएंगे। तो भाई! समझो इस बात को! ये भेद-भावनाएं अच्छी नहीं हैं। सबका आदर होना चाहिए, क्योंकि सबके अंदर वो बैठा हुआ है। अगर तुम एक-दूसरे का आदर नहीं कर सकते हो तो तुम्हारा आदर कौन करेगा ?
भालू ? ऐं ? वो तो तुमको खाना चाहता है। भोजन के रूप में देखता है — "क्या स्वादिष्ट, स्वदिष्ट!" कहता है क्या ? "स्वादिष्ट!"
मनुष्य जब दूसरे को देखता है तो "क्या सुंदर-सुंदर बाल हैं!"
भालू जब तुमको देखता है, कह रहा है, "स्वादिष्ट-स्वादिष्ट पेट है। खूब चर्बी है! अच्छा स्वाद निकलेगा।"
तो मनुष्य हो! मनुष्य की तरह तो रहना सीखो! वो तो जानते नहीं हैं लोग! "तुम फलां-फलां धर्म के हो!" क्या मतलब? जब तुम पैदा होते हो, तुम्हारा धर्म क्या है ? जब तुम गर्भ में रहते हो, तुम्हारा धर्म क्या है ? ऐं ? ये सब संसार के बनाए हुए हैं। उसी के चक्कर में लोग बैठ करके एक-दूसरे का विभाजन करते हैं, एक-दूसरे को बांटने की कोशिश करते हैं — ‘‘तुम ये हो, तुम ये हो, तुम ये हो, तुम ये हो, तुम ये हो, तुम ये हो!’’ भाषा से विभाजन करते हैं। विभाजन करना सीख लिया, पर जोड़ना नहीं सीखा।
अभी तुमको मैथ, गणित विद्या नहीं आती है। पहले गणित विद्या देखो, सीखो, जानो! जोड़ना भी कोई चीज है। जोड़ो! एक-दूसरे को प्रेम से, प्यार से! क्योंकि जो तुम्हारी — क्या तुम समझते हो कि अगर कोई दूसरे धर्म का है — उसको प्यास नहीं लगती ? उसको भूख नहीं लगती ? लगती है। उसको दुःख नहीं होता ? होता है। वो भी तुम जैसा ही है। सब एक हैं!
अलख ईलाही एक है, भरम करो मत कोय।
भ्रमित मत पड़ना। और ये चीज अगर जान लो कि सब एक हैं। सब एक ही चाहते हैं। सब अपने जीवन के अंदर आनंद चाहते हैं। परंतु जबतक ये आपस में — ‘‘तुम मर्द हो, तुम औरत हो, तुम ये हो, तुम वो हो!’’ सबका आदर होना चाहिए।
ऐंकर : आप अक्सर कहते हैं कि हर मनुष्य में 50 प्रतिशत अच्छाई और 50 प्रतिशत बुराई होती है। पर आज लोगों में बुराई का प्रतिशत बढ़ता ही जा रहा है और अच्छाई का प्रतिशत कम होता जा रहा है। ऐसा क्यों ?
प्रेम रावत जी : नहीं, बढ़ नहीं रहा है, घट नहीं रहा है। उतना का उतना ही है। वो कभी बढ़ता नहीं है। वो किसी भी —किसी भी समय नहीं बढ़ता है। किसी भी समय में घटता नहीं है। इनकी बात है!
देखिए! आप सोचते हैं — सबेरे-सबेरे जब सूर्य उदय हुआ तो आप लोगों ने देखा, सूर्य उदय हुआ! है न ? और शाम को आप देखेंगे कि ये सूर्य अस्त होगा। इधर से उदय हुआ, उधर से अस्त होगा। एक निश्चित समय है, जब सूर्य उदय हुआ और एक निश्चित समय है कि सूर्य अस्त हुआ। वो सिर्फ आपके लिए और आप कहां हैं ? क्या आपको मालूम है कि सूर्य हमेशा उदय होता रहता है ? सोचिए! ये पृथ्वी घूम रही है और कहीं न कहीं इस संसार के अंदर, इस पृथ्वी के ऊपर सूर्य उदय हो रहा है और कहीं न कहीं सूर्य अस्त हो रहा है। ये उदय होना और अस्त होना कभी बंद नहीं होता है। ये सिर्फ आपका दृष्टिकोण है, क्योंकि आप जिस जगह हैं, उस जगह जब आप देखते हैं कि सूर्य उदय हुआ तो आप सोचते हैं कि अब सूर्य उदय होकर खतम हो गया, परंतु खतम नहीं हुआ। अभी भी कहीं न कहीं सूर्य उदय हो रहा है और कहीं सूर्य अस्त हो रहा है! ये चक्कर हमेशा लगा रहता है।
अच्छाई-बुराई उतनी ही है, पर आपका दृष्टिकोण क्या है ? अच्छाई को देखने के लिए, जो आपके अंदर अच्छाई है, उसको देखने के लिए, जबतक आप नहीं समझेंगे कि इस स्वांस का आना-जाना ही भगवान की कृपा है, तो आपको अच्छाई तो — अच्छाई की परिभाषा क्या है आपके लिए ? आपके अच्छाई की परिभाषा है — आपकी मनोकामना पूरी हो! है कि नहीं ? आपकी मनोकामना पूरी हो — ये अच्छाई है आपके लिए।
तो बुराई भी है, अच्छाई भी है। परंतु एक अच्छाई सबके साथ हो रही है। परंतु अगर उसको समझ नहीं सकते हैं तो फिर बुराई ही बुराई नज़र आएगी! देखो! इस संसार के अंदर दया की कमी नहीं है। बहुत लोग दयालु हैं। बहुत लोग दयालु हैं! सच में, मैं सच कह रहा हूं! बहुत लोग दयालु हैं।
एक बार हमने देखा जयपुर में। दिल्ली से आ रहे थे जयपुर! एक जगह है बस स्टैण्ड! तो वहां देखा! एक बेचारा काफी बुड्ढा आदमी, पता नहीं कहीं गया होगा कुछ खरीदने के लिए, कुछ करने के लिए, उसकी बस चल दी। तो वो बेचारा बस के पीछे भाग रहा है, पर भाग नहीं सक रहा है। और बस और तेज, और तेज, और तेज, और तेज, और तेज, और तेज जा रही है। तो हमने कहा, ये तो बहुत बुरा हुआ!
तो हम कहने ही वाले थे कुछ कि ‘‘भाई! इस बस के आगे इसको रोककर के, इसको कहें कि तेरा एक पैसेंजर रह गया है’’, इतने में दो आदमी मोटर साइकिल पर थे। एकदम गए वो, उन्होंने बस रोकी — रोकवाई और ड्राइवर से कहते हैं, ‘‘एक रह गया है!’’ बस, उसने देखा कि हां! सचमुच में रह गया! उसने रोक ली और वो वृद्ध आदमी जो है, चढ़ गया उस बस के ऊपर। ये भी अच्छाई है। बस ड्राइवर भी दयालु था। वो दो लोग, जो मोटरसाइकिल पर बैठे थे, वो भी दयालु थे। अब पता नहीं, उस बुड्ढे आदमी को समझ में आई बात कि नहीं कि तीन-तीन लोगों ने उसकी मदद की कि वो आज अपने घर या कहीं भी वो जा रहा है, वो पहुंच जाए।
तो भाई! दयालुता की कमी नहीं है इस संसार के अंदर। परंतु निर्दयता की भी कमी नहीं है इस संसार के अंदर। जबतक प्रकाश हम अपनी अच्छाइयों पर नहीं डालेंगे, तो वही चीजें प्रबल रहेंगी, जो अच्छी नहीं है। बाकी दोनों ही चीज उतनी की उतनी ही हैं और हमेशा रहेंगी, और हमेशा रहती आई हैं।
ऐंकर : और अब अगले प्रश्न की तरफ बढ़ते हैं, जो कि है खुशी के बारे में। हम अपने आसपास के लोगों को खुश रखना चाहते हैं। लेकिन दूसरों को खुश रखने के चक्कर में कई बार हमें अपनी खुशियों का त्याग करना पड़ता है। इन दोनों में तालमेल कैसे बिठाएं ?
प्रेम रावत जी : ये दीवाली आती है। दीवाली में क्या करते हो ? दीये जलाते हो ? जलाते हो दीया ? तो कैसे जलाते हो ? पहले एक दीया लेते हो, पहले उसको जलाते हो! या पहले सारे दीये जलाते हो, उसके बाद फिर उस दीये को जलाते हो ? क्या करते हो ? पहले एक दीये को जलाते हो, फिर उससे अलग–अलग दीये को जलाते हो। ठीक यही बात करनी है। खुश हो! पहले तुम खुश हो! तुम दीया हो! अगर तुम जल नहीं रहे हो, तो और दीयों को कैसे तुम जलाओगे ? बुझा हुआ दीया कुछ नहीं कर सकता है। जलता हुआ दीया बुझाये हुए दीए को जला सकता है। खुशी अपने में ढूंढ़ो पहले। अगर तुम नहीं खुश हो तो किसी और को क्या खुश करोगे ?
ऐंकर : धन्यवाद! ये एक बहुत ही इंटरेस्टिंग सवाल है। आज के युग में जो लोग छल और कपट करते हैं, उनकी प्रगति होती है। जबकि ईमानदार और सच्चे लोग कहीं पीछे छूट जाते हैं। ऐसे में ये लोग अपनी अच्छाई को कैसे पहचानें ?
प्रेम रावत जी : देखिए! वो लोग, जो छल-कपट से प्रगति करते हैं, वो कभी अपने आपको सक्सेसफुल नहीं महसूस करते हैं। उनको मालूम है! अंदर से खटकती है बात! उनको मालूम है! और जो— मैंने देखा है। गरीब लोगों के चेहरे पर वो मुस्कान — उनके पास ज्यादा नहीं है। पर जितना है, उनका है! चाहे वो विदेश की सूट नहीं पहने हुए हैं — खद्दर के ही पैजामा है, खद्दर का ही कुर्ता है, परंतु नहा-धोकर के, अच्छे नये कपड़े पहनकर के जो उनके चेहरे पर मुस्कान है, वो बड़े-बड़े ऑफिसरों के चेहरे पर कई बार हमने नहीं देखी है। तो मुस्कान तो एक ऐसी चीज होती है कि दूसरे को देख करके अपने आप भी मुस्कुराने लगे, उसको असली मुस्कान — ये होती है असली मुस्कान! और दांत दिखाने वाली मुस्कान अलग होती है। वो उससे फिर कुछ नहीं होता है। तो सबसे बड़ी बात है कि वो जो प्रगति कर रहे हैं, उनको मालूम है कि वो प्रगति नहीं कर रहे हैं। परंतु जो है — जिसका हृदय संतुष्ट है, उसको मालूम है, क्या है!
ऐंकर : जिन चीजों के बारे में हम जानते नहीं हैं या मैं ऐसा कहूं — जिन चीजों को हम नहीं समझते हैं, हमें उन चीजों से डर क्यों लगता है ?
प्रेम रावत जी : हां! डर तो लगना चाहिए, पर लगता नहीं है। उन्हीं चीजों के पीछे पड़ जाते हैं, जिन चीजों को हम समझते नहीं हैं। वही वाली बात है कि —
मन तू नाहक धुंध मचाए।
कर आसमान छुए नहीं काहू, पाती फूल चढ़ाए।
मूरति से दुनिया फल मांगे, अपने ही हाथ बनाए।।
चलत फिरत में — दुनिया पूजे देवी-देवरा, तीरथ बरत अन्हाए।
चलत-फिरत में पांव दुखत हैं, ये दुख कहां समाए।।
झूठी माया, झूठी काया, झूठन झूठ लखाए।
बांझी गाय दूध नहीं देवे, माखन कहां से लाए।।
साच के संग सांच बसत है, झूठन मार गिराए।
कहै कबीर जहां सांच बसत है, सहज ही दरसन पाए।।
कितनी सहज बात है। जो है सच में, उसको जानो! उसको पहचानो!