लॉकडाउन 16

प्रेम रावत जी द्वारा हिंदी में सम्बोधित (8 अप्रैल, 2020)
Apr 08, 2020
"मन का तो काम ही है परेशान होना और परेशान करना। परन्तु, आपके अंदर एक चीज है जो इन सारी परिस्थितियों से सम्बन्ध नहीं बनाना चाहती है, वह परेशान नहीं होना चाहती है — वह है आपका हृदय। वह है असली आप।" —प्रेम रावत (8 अप्रैल, 2020) यदि आप प्रेम रावत जी से कोई प्रश्न पूछना चाहते हैं, तो आप अपने सवाल PremRawat.com (www.premrawat.com/engage/contact) या TimelessToday (customercare@timelesstoday.com) के माध्यम से भेज सकते हैं।

प्रेम रावत जी:

सभी श्रोतागण को मेरा नमस्कार!

काफी कुछ हमने कहा है इन वीडियोज़ के द्वारा। काफी कुछ आपलोगों ने सुना भी होगा। बहुत सारे प्रश्न भी हमारे पास आये। एक बात हम कहना चाहते हैं कि अगर आप प्रश्न भेजते रहें तो अच्छी बात है। वैसे काफी सारे हैं और भी आएं तो अच्छा रहेगा। अपने कमैंट्स (comments) भी, जो कुछ आप कहना चाहते हैं वह भी भेजिए, अपने एक्सप्रेशन्स (expressions) भी भेजिए। अपने भाव भी प्रकट कीजिये अगर आपको यह वीडियोज़ अच्छी लगती हैं तो।

सबसे बड़ी बात यही हो जाती है कि यह जो हमको जीवन मिला है, यह जो हमारा समय है इसका सदुपयोग हम किस प्रकार कर सकें। लोग तो बहुत सारे प्रश्न पूछते हैं "ऐसा क्यों है, वैसा क्यों है, यह क्यों होता है, वह क्यों होता है, ऐसा काहे के लिए होता है!" पर सबसे बढ़िया प्रश्न तो यही है कि “यह जो मेरे को समय मिला है इसका मैं सबसे अच्छा प्रयोग कैसे कर सकूँ। इसका सदुपयोग मैं कैसे कर सकूँ!”

तो उसके लिए संत-महात्माओं ने एक बात बहुत स्पष्ट कही है कि — और यह बात लोग सुनते हैं और काफी मात्रा में सुनते हैं यह बात, पर मेरे ख्याल से लोगों की या तो समझ में नहीं आती है या उसको स्वीकार नहीं करना चाहते हैं कि जो भी तुम्हारे प्रश्न हैं, तुम्हारा मन है, तुम्हारा दिमाग जो है, प्रश्नों को पूछता है, वह प्रश्नों के बारे में सोचता है, वही प्रश्न आते हैं। परन्तु तुम्हारे हृदय में सारे उत्तर ही उत्तर हैं। मन में, दिमाग में प्रश्न ही प्रश्न हैं, हृदय में उत्तर ही उत्तर हैं।

तो जबतक तुम अंदर नहीं जाओगे और उस चीज को महसूस नहीं करोगे जो तुम्हारे अंदर है, यह तुम्हारे प्रश्न खत्म नहीं होंगें। यह चलते रहेंगे, चलते रहेंगे, चलते रहेंगे, चलते रहेंगे। और जब इस परिस्थिति में जब और ज्यादा चीजें नहीं कर रहे हो — कई लोग हैं जो घर में बैठे हुए हैं इसी के बारे में सोच रहे हैं, परेशान हो रहे हैं, खबर देख रहे हैं — कहीं कुछ हुआ, कुछ हुआ, कुछ हुआ, कुछ हुआ। तो इसका तो काम ही है परेशान होना — मन का तो काम ही है परेशान होना। परेशान होना भी और परेशान करना भी। और लोगों को परेशान करता है।

तो आपने कोई ऐसी चीज अगर देख ली जिससे आप परेशान हो रहे हैं और इन परिस्थितयों में तो परेशान होना स्वाभाविक बात है और बड़ी आसान बात है। परन्तु, आपके अंदर एक चीज है कि इन सारी परिस्थितियों के होते हुए भी, वह इन सब चीजों से सम्बन्ध नहीं बनाना चाहती है, इन परेशानियो से सम्बन्ध नहीं बनाना चाहती है। वह परेशान नहीं होना चाहती है — वह है आपका हृदय। वह है असली आप। अब असली, नकली की बात आ जाती है — वही राजा जनक को जो किस्सा है, जो मैंने सुनाया पहले कि सच क्या है ? सच यह जो मैं दुनिया में देख रहा हूँ, यह सच है ? मैं राजा हूँ यह सच है कि मैंने जो सपना देखा वह सच है ? जिसमें मैं लड़ाई हार गया, जिसमें मैं जंगल में जा रहा हूँ और खाने के लिए मेरे पास कुछ नहीं है, भूख लगी हुई है, भीखा हुआ हूँ मैं, भूखा हूँ — वह सारी चीजें, तो सच क्या है ?

तो जब अष्टावक्र जी को मौका मिला — राजा जनक के बारे में, राजा जनक को सम्बोधित करने का। तो अष्टावक्र ने यही समझाया कि "न यह सच है और न वह सच है।" जो प्रश्नों के उत्तर हम खोज रहे हैं वह किस दुनिया में खोज रहे हैं। या तो इस दुनिया में खोज रहे हैं, परन्तु न यह दुनिया सच है और न जो हमने अपने विचारों से दुनिया बनायी हुई है, न वह सच है। सच क्या है ? जो तुम्हारे अंदर स्थित है — वह सच है। वह तुम्हारा सच है। और जबतक तुम उस सच को जानोगे नहीं, उस सच को पहचानोगे नहीं, तबतक सवाल आते रहेंगे, उठते रहेंगे, उठते रहेंगे, उठते रहेंगे, उठते रहेंगे क्योंकि — एक किस्सा मैं सुनाता हूँ।

एक बार मैं नेपाल गया और बहुत साल हो गए हैं मुझे नेपाल गए हुए, तो काफी साल पहले की बात है मैं नेपाल गया, तो वहां जहां मैं ठहरा हुआ था, तो किसी ने कहा कि "जी एक व्यक्ति हैं और वह आपसे मिलना चाहते हैं।"

मैंने कहा "कोई बात नहीं, पर कौन हैं वह।"

उसने कहा कि, "जी यहां एक वेदांत सोसाइटी है और वह उसके प्रेसिडेंट हैं।”

हमने सोचा "भैया! वेदांत सोसाइटी के प्रेसिडेंट हमसे मिलना चाहते हैं, कहीं ऐसी बात आगे, प्रश्न ऐसा रख दिया, क्योंकि हमने वेदांत जो है वह पढ़े नहीं हैं, तो वेदांत सोसाइटी के प्रेसिडेंट हमसे मिलना चाहते हैं। मैंने कहा, पता नहीं क्या पूछेंगे!"

तो मैंने सोचा "ठीक है, कोई बात नहीं जो भी पूछेंगे मेरे को अपने अंदर से ही उत्तर देना है। और स्पष्ट रूप से जो भी मैं कह पाउंगा, वह मैं कहूंगा। तो मैंने कहा, ठीक है उनको बुला लो!"

तो सवेरे-सवेरे मैं उठा और सोचने लगा कि "हां आज वह आने वाले हैं, उनसे मिलना है, पता नहीं क्या कहेंगे! कैसी यह मीटिंग होगी!" तो सोचता रहा, सोचता रहा, सोचता रहा। फिर तैयार हुआ मैं गया, मीटिंग में गया।

तो वह आये और जैसे ही वह आये तो मैं बैठ गया, वह आये और उन्होंने कहा कि — "मैं तो सिर्फ आपको धन्यवाद देना चाहता हूँ।"

मैंने कहा — "क्या ?"

कहा — "मैं धन्यवाद देना चाहता हूँ आपको, क्योंकि मैंने सारे वेद पढ़े और मेरे मन में यही प्रश्न था कि "वह असली चीज क्या है, वह असली चीज जो है, जो असली सार है, वह आपने मेरे को बता दिया। बस!"

मेरे लिए — मैंने कहा — ठीक है। फिर थोड़ी बहुत बातचीत की और वह चले गए। मैं सोचता रहा कि "तुम्हारे मन में यह था कि क्या पूछेगा, क्या होगा, कैसे होगा, यह होगा, वह होगा!"

और असली में बात थी कि किसी ने उस सार को समझा, जो मेन चीज है उसको समझा। और जब उस मेन चीज को समझ लिया तो उसके बाद कोई प्रश्न नहीं रह जाता है। उसके बाद फिर वह प्रश्न ही प्रश्न बन जाते हैं। क्योंकि यह है एक सीखने का तरीका, यह है एक समझने का तरीका। जैसे एक कमरे के अंदर अगर अँधेरा ही अँधेरा है, तो उस कमरे में क्या है आप उसको नहीं जान पाएंगे। उसको नहीं समझ पाएंगे कि क्या है उस कमरे के अंदर।

परन्तु जैसे ही उस कमरे में उजाला होगा तो प्रकाश जब होगा, उजाला जब होगा तो उजाला किसी चीज को बनाएगा नहीं। उजाला मेज को या कुर्सी को या गिलास रखा हुआ है वहां या पलंग रखा हुआ है वहां। उन चीजों को बनाएगा नहीं, परन्तु अगर वह चीजें वहां हैं, तो आप उनको देख सकेंगे। बस, बस! देखने के बाद आप, अपने आप इसका निर्णय ले सकते हैं कि आप उस कमरे में किस चीज का इस्तेमाल करना चाहते हैं — कुर्सी पर बैठना चाहते हैं या नहीं बैठना चाहते हैं या पलंग पर लेटना चाहते हैं या नहीं लेटना चाहते हैं। परन्तु पलंग है, कुर्सी है; मेज है; पानी है; आपको भूख लगी हैं, फल हैं। यह सारी चीजें वहां मौजूद हैं और अगर आप उन चीजों का सेवन करना चाहते हैं तो आप कर सकते हैं और यह क्यों हो रहा है ? यह इसलिए हो रहा है, क्योंकि अब उस कमरे में प्रकाश है। उजाले से पहले जब प्रकाश नहीं था, बत्ती जलने से पहले जब प्रकाश नहीं था, तब क्या हालत थी ? अगर आपको भूख लगी थी या प्यास लगी थी या आप थके हुए थे, आपको बैठने की जरूरत थी — आपको नहीं मालूम है कि कहां बैठें! आपको नहीं मालूम था कि पानी वहां है या नहीं है। आपको नहीं मालूम था कि वहां भोजन है या नहीं है! और इसके कारण मनुष्य परेशान होता है, क्योंकि उसको मालूम नहीं है।

परन्तु जब उसको मालूम होने लगता है, जब वह जानने लगता है, जब वह पहचानने लगता है, तो अपने आप फिर वह निर्णय ले सकता है कि उसको किस चीज की जरूरत है। अब उसको पूछने की जरूरत नहीं है, अगर उसको प्यास लगती है तो उसको पूछने की जरूरत नहीं है "पानी है या नहीं है!" अब वह देख सकता है कि "पानी है!"

ठीक इसी प्रकार अपने जीवन के अंदर, जब अंदर अँधेरा है, तो मनुष्य के हजारों प्रश्न हैं — क्या है, ये क्या है, वह क्या है, कब मिलेगा, कैसे मिलेगा, क्या मैं नरक में जाऊँगा, क्या मैं स्वर्ग में जाऊँगा, मेरे साथ क्या होगा — सब — यह सारी चीजें सुनी हुई हैं। जब आप पैदा हुए थे आपको नरक के बारे में कुछ नहीं मालूम था, स्वर्ग के बारे में कुछ नहीं मालूम था — यह सब चीजें आपने सुनी कि "नरक होता है, स्वर्ग होता है, यह होता है, वह होता है" और आपने सोचना शुरू किया कि कहां जाऊँगा मैं ? मैंने कैसे कर्म किये हैं, मैंने कहीं गलती तो नहीं कर दी ? सारी चीजें होने लगती हैं, यह सारे डाउट्स (doubts) जो हैं, यह होने लगते हैं। परन्तु जब वह बत्ती, वह ज्ञान रूपी लाइट बल्ब जलने लगता है, इसलिए कहा है कि —

ज्ञान बिना नर सोहहिं ऐसे।

लवण बिना भव व्यंजन जैसे।।

क्योंकि भव्य व्यंजन लगते तो सब सुंदर हैं, सब ठीक हैं, सब अच्छे हैं, परन्तु खाने पर उनमें कुछ नहीं हैं, खाने में स्वाद नहीं है। ठीक इसी प्रकार, जिस मनुष्य के जीवन के अंदर वह ज्ञान रूपी बत्ती नहीं जल रही है उसका जीवन कुछ इसी प्रकार है कि सबकुछ है उसके पास, परन्तु वह नहीं जानता कि वह कहां है! वह यह नहीं जानता कि आगे क्या हो रहा है! वह यह नहीं जानता कि आज के दिन में क्या हो रहा है, कल की प्लानिंग के बारे में उसको सबकुछ मालूम है, कल की प्लानिंग करने में बड़ा माहिर है, परन्तु आज वह कुछ नहीं जानता। क्योंकि जो सब्र की बात होती है, वह बहुत बड़ी बात होती है।

एक बार एक व्यक्ति था। और उसने काफी धन कमाया, मेहनत की, काफी धन कमाया। उसके दो पुत्र थे, तो जब समय आया उसका तो उसने कहा, देखो मेरे दो पुत्र हैं — अपने बच्चों को बुलाया उसने, बड़े हो गए थे वह सब। उसने कहा, तुम जो दो हो उसमें से मैं एक चुनूंगा, जो मेरा वारिस बनेगा। यह सारा कुछ मैंने जो किया है, वह उसी के पास जाएगा। तो मैं अगले कमरे में जा रहा हूँ और मैं उस कमरे में जब चला जाऊंगा तब तुमको बुलाऊंगा एक-एक करके और तुमसे कुछ प्रश्न पूछूंगा और जो मेरे को अच्छी तरीके से उसका जवाब देगा उसको मैं यह सारी चीजें सौपूंगा।

बहुत कुछ कमाया था उसने। पहले बच्चे को बुलाया, पहले लड़के को बुलाया। कमरा बिलकुल अँधेरा था, उस कमरे में अँधेरा ही अँधेरा था। पहले लड़के से वह पूछता है कि — "तुम क्या-क्या देख सकते हो ?”

तो लड़का बोलता है — "क्या-क्या देख सकते हो, यह कैसा प्रश्न है ? इस कमरे में तो अँधेरा ही अँधेरा है, मैं कुछ नहीं देख सकता। हाँ! इतनी बात है कि मैं आपको सुन जरूर सकता हूँ, परन्तु मैं देख कुछ नहीं सकता हूँ। इस कमरे में कुछ नहीं है। आपके सिवा इस कमरे में कुछ नहीं है।"

दूसरे लड़के को उसने बुलाया — तो उसने कहा, ठीक है — (पहले वाले को, बड़े वाले को) जाओ तुम जैसा भी तुमने जवाब दिया है, अच्छा है! तुम्हारे समझ से सही जवाब तुमने दिया है।

दूसरे को बुलाया, दूसरा आया तो वह जो लड़का आया वह खड़ा हो गया।

तो उसने कहा — "तुम क्या-क्या देख सकते हो ?"

तो उस लड़के ने कहा कि — "उससे पहले कि मैं इस बात का आपको जवाब दूँ कि मैं क्या-क्या देख सकता हूँ। मैं आपसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ। वह सवाल है कि "आपने यह सबकुछ जो कमाया, यह कैसे कमाया ?

तो बाप बड़ा खुश हुआ कि "मेरा जो लड़का है यह जानना चाहता है कि मैंने कैसे कमाया!" तो कहने लगा कि मैंने मेहनत की, मैंने ईमानदारी से कमाया, मैं ईमानदार बना और ईमानदारी से मैंने यह सब इकट्ठा किया। मेहनत से मैंने यह सब इकट्ठा किया, सोच-समझ के मैंने काम किया। जब मेरे को नहीं मालूम था कि क्या करना है, तो मैंने उसकी सलाह और लोगों से ली जो मेरे दोस्त थे, मेरे अच्छे चाहने वाले थे; जो इसमें माहिर थे। उनसे मैंने सलाह ली फिर धीरे-धीरे-धीरे-धीरे करके, सब्र रखकर मैंने ये सारी चीजें इकट्ठा कीं।

तब उसके पिता ने बोला कि "ठीक है तुमने यह बहुत अच्छा प्रश्न मेरे से पूछा, पर मेरे प्रश्न का भी तुम जवाब दो, क्या तुम देख सकते हो कुछ ?"

तो वह बोलता है — "हाँ मैं देख सकता हूँ! आप खड़े हैं यहां, आपके बगल में मेज है, वहां कुर्सी लगी हुई है। यह सबकुछ है।

तो क्यों वह देख सका ? जब पहला वाला आया, उससे जब पहले-पहले प्रश्न किया गया, तो उसने अपनी आँखों को समय नहीं दिया बदलने का। देखिये! जब बाहर धूप लगी हुई है, बाहर से अंदर आते हैं, जहां अँधेरा है तो समय लगता है कि आँखें एडजस्ट (adjust) करें। और फिर आँखें देखने लगती हैं। तो जो पहला वाला था, उसने वह समय नहीं दिया, उसने वह समय नहीं दिया। उसने कहा, मेरे को कुछ नहीं दिखाई दे रहा और वह चला गया।

पर जो दूसरा वाला था वह होशियार था। उसको मालूम था कि मैं तभी देख पाऊंगा अगर मैं इन आँखों को थोड़ा-सा समय दूँ। ताकि यह, जो यह माहौल है इसके अनुकूल बदल सके। तो वह बात उसने पूछ लिया अपने पिताजी से कि "आपने यह सबकुछ इकट्ठा किया!" और वह जो पिता उसको समझा रहा था तबतक उसकी आँखें उस कमरे के अँधेरे से एडजस्ट हो गयीं। जब एडजस्ट हो गयीं, तो उसको सबकुछ दिखाई देने लगा। तो उसका बाप बड़ा खुश हुआ और उसी के नाम सबकुछ उसने कर दिया।

बात धन की नहीं है। बात दौलत की नहीं है। बात यह है कि क्या आप भी वह समय देते हैं ? जब आप बाहर से, इस दुनिया से अंदर की तरफ मुड़ें, तो क्या आप भी वह समय देते हैं कि आप भी एडजस्ट हो सकें, जो अंदर की चीज है उसको जानने के लिए ?

तो कई बार हम यह नहीं होने देते हैं। और लगे रहते हैं — "क्या है, ऐसा होना चाहिए, ऐसा होना चाहिए, ऐसा होना चाहिए!" सचमुच में यह जो मन है, यह फोटो छापता रहता है, फोटो छापता रहता है — ऐसा होना चाहिए, ऐसा होना चाहिए, मेरी बीवी ऐसी होनी चाहिए, मेरा परिवार ऐसा होना चाहिए, मेरे बच्चे ऐसे होने चाहिए; मेरे दोस्त ऐसे होने चाहिए, इन सब चीजों के पीछे लगा रहता है, लगा रहता है, लगा रहता है, लगा रहता है। अगर सचमुच में इस बारे में सोचा जाए तो झगड़े की जड़ यही है — सारे चित्र हैं हमारी जिंदगी के अंदर, जो हमने बना रखे हैं।

तो ध्यान दीजिये और सुरक्षित रहिये; तंदरुस्त रहिये और सबसे ज्यादा, सबसे बड़ी चीज आनंद से रहिये!

सभी श्रोताओं को मेरा बहुत-बहुत नमस्कार!

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