प्रेम रावत जी:
मेरे सभी श्रोताओं को मेरा बहुत-बहुत नमस्कार! आज के दिन मैं आपको एक भजन पढ़कर सुनाना चाहता हूँ, जो कबीरदास जी का भजन है —
चंदा झलकै यहि घट माहीं, अंधी आँखन सूझे नाहीं ॥
इसी घट में वह चन्द्रमा झलकता है, मतलब प्रकाश का जो स्रोत है वह आपके अंदर है। पर, क्योंकि ये आँखें अंधी हैं आपको दिखाई नहीं दे रहा है।
यहि घट चंदा यहि घट सूर, यहि घट गाजै अनहद तूर, अनहद तूर ॥
इसी घट में चंदा है, इसी घट में सूरज है और इसी घट में बज रहा है वो, बिना बजाये जो बजता है। बजाने वाला कौन है उसको ? कोई गायक नहीं है, कोई म्यूज़िशियन (musician) नहीं है, परंतु वह बज रहा है।
यहि घट बाजै तबल-निशान, बहिरा शब्द सुने नहि कान ॥
क्योंकि कान जो हैं वो बहरे हैं, उनको सुनाई नहीं दे रहा है।
जब लग मेरी मेरी करै, तब लग काज एकौ नहि सरै ॥
जबतक मेरा-मेरी करते रहोगे, तबतक कुछ बनेगा नहीं। कुछ काम नहीं होगा। मेरा-मेरी, यह मेरा है, मेरा है, यह मेरा है, यह मेरा है, मेरे को क्या होगा, मेरे से क्या होगा, मेरे को क्या होगा इस परिस्थिति में! यह जो मेरा-मेरी है, यह सिर्फ चीजों को लेकर ही नहीं है, परन्तु परिस्थितियों को लेकर भी है। और इस परिस्थिति में सब अपने बारे में सोच रहे हैं, सब अपने बारे में सोच रहे हैं कि मेरा क्या होगा, मेरा क्या होगा, मेरा क्या होगा, मेरा क्या होगा! परन्तु कोई, जो सारा समाज है उसके बारे में कोई नहीं सोच रहा है। क्योंकि जबतक यह मेरा-मेरी रहेगी, तो एक भी काम बनेगा नहीं।
जब मेरी ममता मर जाय, तब प्रभु काज सँवारै आय॥
जब यह ममता खत्म हो जाती है, तब उस दया से, प्रभु की कृपा से कार्य सुलझ जाते हैं।
ज्ञान के कारन करम कमाय,
ज्ञान को पाने के लिए लोग कोशिश करते है, कर्म कमाते हैं।
होय ज्ञान तब करम नसाय ॥
जबतक ज्ञान नहीं होगा तबतक कर्म खत्म नहीं होंगें, इनका जो फल है वह खत्म नहीं होगा।
फल कारन फूलै बनराय,
फल कारन — फल के कारण जंगल में, पेड़ों में फूल आता है।
फल लागै पर फूल सुखाय ॥
जब फल लगने लगता है तो जो फूल हैं उसको जाना पड़ता है। इसी प्रकार समझें कि —
मृगा हास कस्तूरी बास,
जैसे मृग के नाभि में कस्तूरी है और वह सारे जंगल में खोजता रहता है।
आप न खोजै खोजै घास ॥
घास को सूंघता है।
तो इसका तुक क्या हुआ और मैंने क्यों ये पढ़कर सुनाया आपको यह भजन ? क्योंकि मैंने जो नई किताब लिखी है, उसमें भी यह भजन मैंने दिया है इसका ट्रांसलेशन अंग्रजी में।
मतलब है कि, इसी घट के अंदर, तुम्हारे अंदर ये सारी सुन्दर-सुन्दर चीजें झलक रहीं हैं। और इसका तुम आनंद उठा सकते हो। बाहर मत खोजो, क्योंकि लोग जब इन परिस्थितियों में दुखी होते हैं, तो इनका यही है कि यह कब खत्म होगा, यह कब खत्म होगा ? कभी भी खत्म हो, हमको तो यही आशा है कि जल्दी ही खत्म होगा। परंतु खत्म कभी भी हो, जब भी हो, आप सुरक्षित रहें यह सबसे बड़ी बात है। और जैसे मैं पहले कह रहा था — "न किसी को ये बीमारी दो; न किसी से ये बीमारी लो!" अगर यह समझ में आ गया तो बहुत अच्छा है।
तो लोगों का मन जो है यह विचलित होता है और यह सोचता है, "अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा, मेरे साथ क्या होगा, मेरा क्या होगा, मेरा क्या होगा!" जब तक यह चलता रहेगा, तब तक कोई काम नहीं बनेगा। और जब मनुष्य यह सोचने लगेगा "ठीक है, जो भी परिस्थिति है, इसमें मैं आगे कैसे चलूँ! मेरा उद्धार — इस परिस्थिति में भी मेरा उद्धार हो!"
तो समझने की बात है, देखने की बात है कि क्या उस परमांनद का अनुभव इस परिस्थिति में भी किया जा सकता है या नहीं ? इसका उत्तर स्पष्ट है कि बिलकुल! इस परिस्थिति में भी वह चल रहा है। आपके अंदर वह चांद चमकरहा है, वह सूरज प्रकाश दे रहा है। अगर आप उस बात को स्वीकार कर पाए अपने जिंदगी के अंदर, तो फिर आगे चलने के लिए आपको मजबूर नहीं होना पड़ेगा, दुखी नहीं होना पड़ेगा और आप आनंद से, इस समय में भी आनंद से आप इसको गुजार सकते हैं।
परिवार के साथ अगर आप आइसोलेटेड हैं, तो सभी मिल-जुलकर के इस समय का पूरा-पूरा फायदा उठाएं। कैसे ?
द्वेष से नहीं, क्लेश से नहीं, एक-दूसरे की — "तूने ये कर दिया, तूने ये कर दिया, तूने ये कर दिया, तूने ये कर दिया!" इससे नहीं। एक दूसरे के अंदर जो अच्छाई है उसको बाहर लायें कि तुम्हारे में क्या अच्छाई है, तुम क्या कर सकते हो ? ये नहीं है कि दूसरे की त्रुटियां देखना, दूसरे की मिस्टेक्स (mistakes) को देखना। नहीं! उसकी अच्छाइयों को देखना। यह भी तो समय है और इस समय का पूरा-पूरा फायदा आप उठा सकते हैं।
अपने आपको जानो, यह मैं हमेशा कहता आया हूँ — "अपने आपको जानो, अपने आपको समझो कि आप कौन हैं।" यह मौका है, यह मौका है। जब और चीजें नहीं हो रहीं हैं, तो आप अपने अंदर जाकर के इस चीज का अनुभव कीजिये कि आप कौन हैं । और उससे जो आपको राहत मिलेगी। बात तो राहत की है, अब क्या राहत मिलेगी ? कैसी राहत मिलेगी ? जब आदमी अपने आपको समझने लगता है और वह जानने लगता है कि मेरे अंदर स्थित जो चीज है, वह अनमोल है। मैं एक उदाहरण देता हूँ आपको —
एक डिब्बा है। डिब्बे की क्या कीमत है ? 100 रूपए लगभग! परंतु उस डिब्बे के अंदर एक हीरे की अंगूठी है। और उस हीरे की अंगूठी की कीमत दो करोड़ रूपए है। डिब्बे की कीमत 100 रूपए, हीरे की अंगूठी की कीमत दो करोड़। जबतक वह अंगूठी उस डिब्बे में है, तबतक उस डिब्बे की कीमत क्या है ? आप सोचिये, तबतक उस डिब्बे की कीमत क्या है ? उस डिब्बे की कीमत तबतक वही है, जो उसमें है। जो वह — जबतक वह अंगूठी उस डिब्बे में है, तो उस डिब्बे की कीमत दो करोड़ है। और एक सौ रूपए, जो उसकी कीमत है असली में। क्यों?
क्योंकि अगर किसी को अंगूठी चाहिए और किसको खोजेगा वह ? कहाँ थी ? उस डिब्बे में थी। डिब्बे को खोजो। अंगूठी को नहीं, डिब्बे को खोजो। हरा रंग का डिब्बा है या लाल रंग का डिब्बा है उसको खोजो। और जब वह मिल जायेगा तो वह अंगूठी भी मिल जायेगी। परन्तु जब उसमें से अंगूठी निकल जाती है तब उस डिब्बे की कीमत क्या है ? तब उस डिब्बे की कीमत सिर्फ सौ रूपए है। जबतक आपके अंदर वो स्थित चीज है, जिसके कारण यह स्वांस आ रहा है, जा रहा है, तबतक आपकी भी कीमत वही है, जितनी कीमत है उस चीज की जो अनमोल है।
तबतक आपकी कीमत भी अनमोल है। पर, जिस दिन वह चीज निकल जायेगी, उस दिन आपकी क्या कीमत रह जाएगी ? यह खाल की खाल; ये हड्डियां की हड्डियां; ये बाल के बाल; ये दांत के दांत; ये खून का खून, ये सब। कोई कीमत नहीं रह जाती है इसकी।
सबसे बड़ी देखने की चीज है, आप जिंदा हैं और जबतक आप जिंदा हैं, तबतक आपकी कीमत वही है, अनमोल! जिसका कोई मोल नहीं। इस बात को समझने के लिए आपको हृदय रूपी दर्पण की जरूरत है। हृदय रूपी मिरर (mirror) की जरूरत है। हृदय रूपी आईने की जरूरत है ताकि आप देख सकें उस आईने में कि आप असलियत में क्या हैं ? संत-महात्माओं ने इसी बात पर ध्यान दिया है। इसीलिए यह कबीरदास जी का भजन —
चंदा झलकै यहि घट माहीं, अंधी आँखन सूझे नाहीं
यहि घट चंदा यहि घट सूर - सूरज
यहि घट गाजै अनहद तूर।।
यही सबकुछ हो रहा है और आपको होश-हवाश नहीं है, आपको यह होश नहीं है कि ये सबकुछ हो रहा है। आप बैठे हैं, अपने कमरे में बैठे हैं या अपने लिविंग रूम में बैठे हैं या अपने बैडरूम में बैठे हैं या कहीं भी बैठे हैं और आपके दिमाग में यह हो रहा है कि "अब क्या होगा या मैं बोर हो गया।" लोग बोर हो जाते हैं! अब अगर किसी के पास टेलीविज़न नहीं है, किसी के पास ये नहीं है, तो चुपचाप बैठे हुए हैं, "कैसे होगा; अब क्या होगा; क्या करेंगे; क्या नहीं करेंगे। बाप रे बाप! उफ्फ! ये तो बहुत हो गया।"
बोर पड़े हुए हैं। बोर्डम, (boredom) बोर्डम आ जाती है और बोर्डम न आये तो ततततततततततत... फ़ोन के ऊपर लगे रहते हैं, टेलीविज़न के ऊपर लगे रहते हैं। कहीं न कहीं, कुछ न कुछ मनोरंजन के लिए, उस मन की ख़ुशी के लिए लगे रहते हैं, जिस मन को आप खुश नहीं कर सकते। वो मन कभी खुश होता नहीं है। उसका तो यह है कि कोई चीज उसको चाहिए वह मिल गयी उसके बाद वह दूसरी चीज चाहेगा। तो लोग बोर हो जाते हैं।
पर संत-महात्मा क्या कह रहे हैं, बोर, बोर —
इस घट झलकै वही चंदा — चंदा भी इसी घट में झलक रहा है, सूरज भी और चांद भी इसी घट में है और इसी घट में बज रहा है अनहद तूर — बिना बजाये जो बज रहा है। इसी घट में है वह ढोल, इसी घट में शब्द सुने नहि कान। इसी घट में सबकुछ हो रहा है। परन्तु आपको हवा ही नहीं है, तो बोर्डम अपने आप होगी। और उसके लिए जिसको यह मालूम है कि यह मेरे अंदर हो रहा है उसको यह भी मालूम है कि मेरे को बोर होने की जरूरत नहीं है। मेरे अंदर तो क्या-क्या नहीं है!
तो यह बात समझें और जैसे मैंने पहले भी कहा, यह हिम्मत से काम लेने का समय है। यह हिम्मत से और सब्र से काम लेने का समय है। सब्र रखिये, क्यों रखिये ? इसलिए रखिये सब्र, क्योंकि यह भी खत्म होगा। एक समय था यह नहीं था, एक समय है जब यह है, एक समय होगा जब यह नहीं होगा। ठीक है, पर सब्र रखिये!
कैसे बीते दिन ? हिम्मत से, हिम्मत से बीते दिन। आनंद से बीते दिन! मैं यह कह रहा हूँ आपसे, मैं आपको सिर्फ यह नहीं कह रहा हूँ कि "भाई! किसी न किसी तरीके से इस दिन को बिता दो। ना! मैं यह कह रहा हूँ आपसे कि ये दिन भी आपका आनंद में बीतना चाहिए, क्योंकि यह आपकी क्षमता है।" चाहे कुछ भी हो, यह तो मैं आपको कह रहा हूँ। आप जेल में नहीं हैं, आप अपने घर में हैं।
जब मैं जेलों में जाता हूँ, लोगों से बात करता हूँ। उनको भी यही मेरे को समझाना पड़ता है कि भाई! एक तो यह बाहर की दुनिया है और एक तुम्हारे अंदर की दुनिया है। तुम अपने अंदर की दुनिया को समझो। बाहर की दुनिया तो तुमने समझ ली और यह भी समझो कि बाहर की दुनिया तुमको वो आनंद, स्थायी आनंद नहीं दे सकती है। जो आनंद है, अगर फिल्म भी देखने को जाओ, जबतक उस फिल्म हॉल में बैठे हो, फिल्म देख रहे हो तबतक आनंद ही आनंद है। हो सकता है कि आधे घंटे के लिए, पंद्रह मिनट के लिए फिल्म देखने के बाद भी तुमको अच्छा लगे। परंतु उसकी भी एक सीमा है, उसके बाद भूलना शुरू कर जाओगे। परन्तु जो अंदर का आनंद है, तुम जहां भी जाओ, कैसे भी रहो, कुछ भी होता रहे, वह आनंद हमेशा बना हुआ है। इसीलिए अपने आपको समझने की कितनी जरूरत है। क्योंकि इतनी बड़ी चीज, इतनी बड़ी बात, मनुष्य इसको खो रहा है।
तो चाहे कोई भी परिस्थिति है, मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि यह परिस्थिति अच्छी है, नहीं अच्छी नहीं है। परंतु फिर भी मेरा लक्ष्य क्या है ? क्या मैं इस परिस्थिति में फंसकर दुखी होना चाहता हूँ या इस परिस्थिति में रहते हुए भी मैं सुखी होना चाहता हूं। यही समझने की बात है, यही समझने की बात है! असली चीज क्या है ? मैं असल में क्या चाहता हूँ ? अगर यह बात आपकी समझ में आ गयी कि आप उस चीज को जो आप सचमुच में चाहते हैं, वह अभी भी आपके अंदर है। तो फिर आपका दृष्टिकोण बदल सकता है, इन सारी परिस्थितियों के बारे में।
तो सभी लोगों को मेरा नमस्कार!