लॉकडाउन — तेरहवां दिन

प्रेम रावत के साथ (हिंदी में अनुवादित)
Apr 02, 2020
“24/7, 365 दिन आपके अंदर से एक पुकार आ रही है। और वह पुकार कह रही है, संतुष्ट हो। असल बनो। सच्चे रहो। जीवित हो।" — प्रेम रावत जी / प्रेम रावत जी "पीस एजुकेशन प्रोग्राम" की वीडियो श्रृंखला को प्रस्तुत करने की तैयारी कर रहे हैं। इस दौरान आपके लिए उनके पूर्व प्रकाशित अंग्रेजी लॉकडाउन वीडियो जो हिंदी में अनुवादित है, प्रस्तुत हैं।

प्रेम रावत:

सबको नमस्कार!

उम्मीद है आप सब बिल्कुल ठीक हैं। इन सब बातों के अलावा जो कोरोनावायरस और बाकी सब आजकल चल रहा है कि आप ठीक रहें। इस सबके बीच और — यही बात जरूरी है सच मानिये। तो आज मैं क्या बात करना चाहता हूं और मैं कल रात इसके बारे में सोच रहा था और मैंने सोचा ऐसा जो बहुत ही कमाल का होगा। कम से कम बात और सोचने के बारे में और कुछ नहीं तो मैं इस कहानी से बात शुरू करता हूं।

एक आदमी ने कॉलेज पूरा किया और वह अपने घर जा रहा था। बहुत ही खुश था कि कॉलेज पूरा कर लिया है और जानता था कि अब उसे नौकरी ढूंढनी है और सभी वो बातें जो कॉलेज पूरा करने के बाद आप करना चाहते हैं। तो वह अपने घर जा रहा था और रास्ते में वह देखता है एक बूढे व्यक्ति को और उस बूढे व्यक्ति ने कन्धों पर बहुत, बहुत, बहुत बड़ा लकडी का टुकड़ा रखा हुआ है और वह झुका हुआ है और वह धीरे-धीरे चल रहा है। यह देखकर इस आदमी को विचार आता है, वह कहता है कि "अब मैं भी जीवन की शुरूआत ही कर रहा हूं और यह बूढा व्यक्ति इन्होंने तो जीवन की राह पर काफी कुछ देखा ही होगा काफी लम्बे समय से। तो इससे ही क्यों ना मैं पूछूं कि दुनिया में कैसे जीना चाहिये, सभी बेहतरीन चीजों का लाभ कैसे ले सकता हूं मैं ? क्योंकि यह बहुत अच्छा होगा, क्योंकि मुझे इससे फायदा होगा।"

तो जैसे ही वह उनके पास पहुंचा उन्होंने उनसे पूछा कि "सुनिये बाबा! मैं अपने जीवन में अच्छा कैसे करूं क्योंकि मैं तो शुरुआत ही कर रहा हूं और बिल्कुल आप तो काफी वक्त बिता चुके हैं। आपके पास मुझे बताने योग्य कुछ तो होगा।"

उस बूढे व्यक्ति ने रूककर अपने कन्धों से वो बड़ा लकड़ी का टुकड़ा उठाया नीचे रखकर सीधा खड़ा हुआ। उसके बाद उस भार को उसने अपने कन्धों पर फिर से रखा और चलने लग गया। वह आगे चला गया और बस चलता गया। और बस यही कहानी का अन्त है। क्या उस बूढे व्यक्ति ने इस आदमी को कुछ संदेश दिया कि "जीवन कैसे जीना है ?" और वह संदेश यह है कि "जीवन में हम चलते हैं और हम झुकते हैं अपने ऊपर भार लेकर, एक बहुत भारी सामान लेकर और उन चीजों का भार वो ऐसा है और इस व्यक्ति ने मुझे ये कहा; उसने मुझसे ये कहा और उसने मुझसे ऐसा व्यवहार किया; उसने मेरी ये समस्या नहीं समझी और हां वह व्यक्ति मुझे इसलिये पसन्द नहीं करता क्योंकि ये है और ऐसा करता है" और ये सभी बातें जो हम इकट्ठा कर लेते हैं अपने ऊपर।

ओह जानते हैं "मैं फेलियर हूं, मैं सफल इंसान नहीं हूं।" "मैं फेलियर इसलिये हूं क्योंकि मैंने ऐसा किया; मैं इसमें अच्छा नहीं हूं और मैं ये नहीं कर सकता; मैं वो नहीं कर सकता…मैं सोच रहा था कि हे भगवान, जानते हैं हम अपने ऊपर कितना बोझ लिये हुए चलते रहते हैं।"

और अब जब हम लॉकडाउन की इस स्थिति में हैं, कोई जगह नहीं हमारे पास जाने के लिये। हम क्या वो कैसा होगा और कुछ नहीं कि — हम पीछे लौट चलें बस। बटन को रिसेट कर दें कैसा रहेगा ? बस जाने देना और मान लेना ? उस सुन्दर साधारण अस्तित्व को, उसकी सच्चाई को, वो एक बच्चे की तरह जो हर रोज उठता है.... और मुझे याद है कि जब मैं एक बच्चा था — और मैं दिन के लिये तैयार होता था; मैं दिन को स्वीकारने के लिये तैयार था। मैं उस दिन की चुनौतियों के लिये तैयार होता था। कुछ भी एक जैसा नहीं होता कुछ भी ऐसा नहीं था कि "मुझे ये करना है, फिर वो करना है, फिर ये।" फर्क नहीं पड़ता था। चाहे दिन जैसा भी होने वाला था, मैं उसके लिये तैयार था; उसे स्वीकार करने के लिये और मैं खुश था। मैं उत्सुक था, जीवित होने के लिये उत्सुक था, उस सुबह के मौके के लिये उत्सुक था, उस सुन्दर मौके के लिये — और उन मौकों को अपनाना ताकि मैं एक खुले हृदय के साथ और मन के साथ उसे स्वीकारना। वो पहले से मैला नहीं कि "हे भगवान, आज क्या होगा; आज बुरा होगा; आज ये होगा; वैसा ही होगा नहीं।"

एक दिन एक राजा था। वह अपनी बालकनी में आया और वह नीचे देख रहा था और उसने एक आदमी को देखा और वह आदमी वहां से जा रहा था और उसने राजा को देखा और उसने झुककर सलाम किया और उस दिन राजा का दिन बहुत ही बुरा गया, बहुत ही बुरा दिन। तो राजा ने उस आदमी को बुलवाया और शाम को ही राजा ने उस आदमी से कहा कि "इसे मौत की सजा दो" और उस आदमी ने कहा "लेकिन आप मुझे मरवाना क्यों चाहते हैं ? आप मुझे सजा क्यों दे रहे हैं ?" राजा ने कहा "क्योंकि मैंने आज सुबह उठकर तुम्हारा चेहरा देखा और मेरा दिन बहुत ही खराब गया और इसलिये मैं तुम्हें मरवा रहा हूं।" उस आदमी ने राजा को देखा और कहा कि "राजा आपका दिन बहुत ही बुरा गया पर मैं तो मरने वाला हूं और मैंने आपका चेहरा देखा था और सुबह सबसे पहले आपको ही देखा था तो मुझसे भी कहीं ज्यादा बदकिस्मत आप हैं" — देखने के लिये, क्यों।

ऐसे ही जानते हैं न जैसे कि जब हम उठते हैं और वही टेप-रिकॉर्डर बजना शुरू हो जाता है "आपको ये करना है; आपको वो करना है; आप लेट हो गये हैं; आप ऐसे हैं; आप वैसे हैं। वह इंसान आपको पसन्द नहीं करता; आपको इस इंसान को ये बताना है; आपको ये करना है और आपको वो भी करना है। और यह आपके परिवार और दोस्तों और साथ काम करने वालों के साथ ऐसा ही चलता है, "हमें इसका जबाब देना है; उसका जबाब देना है; हमें ये करना है; हमें वो करना है। कितनी ही चीजें — मैं जानता हूं ऐसे लोग हैं वो सन्देश लिखते हैं और उससे वो एक्स्पेक्ट करते हैं, उम्मीद रखते हैं कि जवाब उसी वक्त मिले। अगर ना मिले तो वो कहते हैं कि "अरे कुछ तो गड़बड़ है।" वो घबरा जाते हैं और आप दुनिया में देखते हैं सबकुछ कि "हमें ये करना है; हमें वो करना है; इसका जबाब देना है। हे भगवान, हमें ये साझा करना है।" और यह टेप-रिकॉर्डर बस चल पड़ता है अचानक से।

एक तरह से क्या मैं किसी पर आरोप लगाऊं, क्या मैं सोचूं कि यह गलत है ? एक तरह से मैं समझ सकता हूं कि इसमें कुछ भी गलत नहीं है। यह बिल्कुल सही है सबकुछ, लेकिन इस सब में सिर्फ एक ही बात जो मुझे गलत लगती है वो यह कि सबकुछ ये सब मुझे खुद से दूर ले जाता है। अब मुझे एक फैसला लेना है और शायद मैं इसे हर रोज ना सुनूं और हां, जब मैं दुनिया की सारी परेशानियों से घिरा हुआ हूं शायद मैं इस पर ध्यान ना दूं लेकिन एक फैसला तो है — एक फैसला जो मेरे भीतर से आयेगा 24*7, साल के 365 दिन। और वह फैसला कह रहा है कि "आप पूर्ण रहें, आप सच्चे रहें, ईमानदार रहें। समझिये। आप स्पष्टता लायें। आप सभी चीजों को जीवन का हिस्सा बनाइये।" और यह करने का फैसला होगा हृदय का। और हमारा फैसला है कि "हम जबाब दें; मेल मिला है क्या; जाइये मेसज़ को देखिये; न्यूज़ को देखिये और ये कीजिये और वो कीजिये और इसका जबाब दीजिये और उसका जबाब दीजिये।" और यही सब — कितनी ही सारी जिम्मेदारियां।

तो सवाल यह है कि क्या हम एक बटन दबाकर रीसेट कर सकते हैं ? और शायद ऐसा कोई रीसेट करना ना हो पाये। पर शायद यहां पर हम इस बात की सराहना कर सकते हैं। सराहना करना शुरू कर सकते हैं कि जीवन हमें कुछ बता रहा है कि मैं खुद को कुछ बताऊं कि हां, यह ब्रह्माण्ड भी मुझे कुछ बता रहा है। और जब मैं देखता हूं — सबकुछ देखता हूं मैं। जब मैं गंदगी को देखता हूं — और मैं यही तो हूं। मैं ही वो गंदगी हूं। इन चीजों से ही, यही चीजें जिन्हें देखकर मैं "गंदगी" कहता हूं इन्हीं सबसे मैं बना हूं। यह है — ये खाल, ये हड्डियां, ये खून, ये मांसपेशियां, ये अंग हम इन्हीं से तो बने हैं। और जिस दिन मैं दूसरी दीवार से टकराऊंगा; मैं खत्म हो जाऊंगा, मैं बस यही तो बन जाऊंगा — धूल। धूल से ही हम आये हैं और धूल में ही हम मिल जायेंगे। और फिर भी जीवन क्या है ?

अब कई लोग कहते हैं कि "जीवन क्या है ?" और सवाल ये आता है कि "जीवन का क्या ?" क्योंकि कोई भी इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देता। कोई नहीं कह रहा कि "यह है जरूरी।" वो सारी बातें नहीं जो आप कर रहे हैं। जरूरी क्या है ? जरूरी है इस स्वांस का आना और जाना। कितनी मधुर और ताकतवर है यह स्वांस! कितनी कमाल की है यह स्वांस — जो आप में आती है और आपको क्या देती है ये ? कोई साधारण तोहफा नहीं — एक अनोखा उपहार और यह है स्वयं जीवन का उपहार। प्यार से, आराम से यह आप में आती है, आपको भरती है, ताकि आप जीवित रह पायें। आप ही सोचिये और इसकी कोई सीमा नहीं है जो आप सोच सकते हैं; आप जो चाहें उसके बारे में सोच सकते हैं। आपको पूछना चाहिये, जी हां आपको सोचना चाहिये कि आपकी मूलभूत जरूरतें आखिर क्या हैं ? मैंने इन्हें "जरूरत" कहा है, चाहत नहीं जरूरत। आपकी एक जरूरत है कि आप पूर्ण हो जायें। आपकी जरूरत है कि आप सन्तुष्ट हो जायें। आपकी जरूरत है कि आप खुश रहें। ये हैं आपकी जरूरतें। और इनके बिना नतीजे बहुत ही बुरे होंगे। इनके बिना उदासी छा जायेगी; निराशा होगी; भ्रांति छा जायेगी।

यह ऐसी ही बात है; जैसे कि हम संदेह की बात करते हैं और संदेह — अच्छा। क्या आपको कभी संदेह नहीं होना चाहिये ? जी नहीं! हर एक बावर्ची को हर कोई आप एक चीज करता देखेंगे वह अपना खाना बनाने के बाद, वह चखते हैं उसे और वह चखते क्यों है ? वह चखते हैं क्योंकि उन्हें संदेह है। वह जानना चाहते हैं कि जो पका है वह कैसा है कि नमक ठीक है, स्वाद ठीक है। संदेह करते हैं, शक करते हैं, पर सन्देह से निकलने के लिये कुछ करते हैं वो लोग ? और वो उन्हें बस चखना होता है। उसे चखकर अब कोई सन्देह नहीं कि अच्छा है या नहीं है या स्वाद ठीक है कि जैसा स्वाद चाहिये था वैसा मिला या नहीं मिला कि नमक ठीक डाला है, मिर्च सही डाला है जो भी — मसाला सही है "सबकुछ ठीक है।"

तो सन्देह कोई मुद्दा नहीं है। बात है सन्देह को खत्म करने की और जब आप दूसरी तरफ फंसे हैं और दिमाग में है बस शक, शक, शक, शक, सन्देह, सन्देह, सन्देह ही….। मेरा मतलब कि फिलहाल क्या आप शक कर रहे हैं ? नहीं करना चाहिये, इससे बाहर निकलिये, क्योंकि यही एक मौका है। आप जानते हैं कोई है जो बैठकर कह रहा है कि "यह मेरे साथ क्यों होता है ?" अब आप बैठकर खुद को सवाल कर सकते हैं जबतक गाय वापस नहीं लौट आती। सोचते रहें, सोचते रहें और यह बात कि "मेरे साथ ये सब क्यों हुआ" या फिर आप कह सकते हैं कि "मैं इसके बारे में क्या करूं जिससे मुझे इस वक्त का सबसे ज्यादा फायदा मिल पाए, मैं बेहतर कैसे बन सकता हूं ?" मुझे यकीन है ऐसे भी लोग हैं जिन्हें लगता हैं कि बेहतर बनने की गुंज़ाइश नहीं है, पर मेरी बात मानिये हर इंसान बेहतर बन सकता है। क्या आप अपने हृदय में बेहतर बनना चाहते हैं ? क्या आप मान सकते हैं अपने दिमाग में कि आपके पास एक विकल्प है कि आप चुन सकते हैं, आप चुन सकते हैं कि आपकी जरूरतें क्या हैं आप उन पर ध्यान नहीं देते हैं।

और क्या कमाल का तरीका है वापस जाने का, सुनकर, सिर्फ सुनकर — और फिर कुछ करने से अपनी जरूरतों के बारे में सोचना, खुशी की जरूरत…। वो बाहर जाना, यह कोई जरूरी नहीं, यह चाहत है। जरूरत है कि आपको सुरक्षित रहना है। लेकिन बाकी जरूरतें भी होती हैं; जरूरत है पूर्ण होने की और इसका बाहर जाने से कोई लेना-देना नहीं इसके लिये आपको भीतर जाना है। उस स्पष्टता के लिये आपको भीतर झांकना है। उस सुन्दर समझ के लिये आपको अन्दर देखना है। क्योंकि भीतर ही आपको ये मिलेगी। आप में — आपके अन्दर वो सब बातें मौजूद हैं जो आप खुद से दूर समझते थे। यही है व्यंग।

इसे कबीर कितना अच्छे से बताते हैं कि "वह जो हिरण है, वह हिरण अपनी नाभि की महक ढूंढ रहा है — और वह जंगल ढूंढता है पर वो महक उसकी अपनी नाभि में होती है।" वहीं तो है वो महक हिरण में। और यह है दुर्घटना। और कैसे ? कबीर कहते हैं "जैसे कि आग लगती है चमकते पत्थर में...." जैसे तेल है तिल में। छोटे बीज, तिल के बीज, आपको लगता है कि उसमें कोई तेल नहीं है लेकिन उनमें से कुछ को निचोड़ें तो काफी सारा तेल निकल जाता है, तिल के बीज का तेल और "चमकते पत्थर की तरह जहां आग है वैसे ही दैविक है आपके भीतर। और अगर आप उसके साथ जग पायें, अगर अपनी आंखें उस पर खोल पायें।" तो देखेंगे और वह कहां है दैविक, वह है स्पष्टता; वह है शांति; वह है समझ — वह सब जो आप में अच्छा है वह हमेशा से रहा है, हमेशा रहेगा भी। आप उसे बाहर देखेंगे क्योंकि यह आपकी आदत है। अब कोई भी जेब में आइसक्रीम नहीं रखता जब आपको आइसक्रीम चाहिये आप उसे बाहर ढूंढते हैं। लेकिन जो दैविक है वह आपके भीतर है। वह स्पष्टता, आपके भीतर है। वह समझ, आपके भीतर है। वह खुशी, आप खुद में लेकर चलते हैं। पूर्ण होना आप भीतर लेकर चलते हैं — वह सच्ची पूर्णता और वहीं तो आपको देखना है। वहीं तो आपको खोजना है। यही बात तो आपको समझनी है।

यह सवाल नहीं है कि "ओह हां, मुझे पता है!" यह सवाल नहीं है कि "ओह हां, मैं जानता हूं।" सवाल यह है कि इसका क्या कर रहे हैं आप — अगर आप जानते हैं कि दैविक आपके भीतर है आप उसका क्या कर रहे हैं ? क्या आप उत्सुक हैं ? आपको कितना उत्सुक होना चाहिये ? दैविक आपके भीतर है इस बात कि खुश होने की कोई सीमा नहीं होनी चाहिये। आपको इतना खुश होना चाहिये कि जो आप ढूंढ रहे हैं वह आपको चाहिये, वह आपके भीतर ही है कि वो सब — वह दूसरी सच्चाई है। हम इस दुनिया की सच्चाई को मानते हैं — लेकिन एक और सच्चाई भी मौजूद है। और यह उतनी ही सच है जैसे वो। पर कभी-कभी सच्ची नहीं रहती।

मेरा मतलब, मेरे सबसे अच्छे प्लान्स थे। अगर किसी ने कहा होता कि "2020 में एक लम्बा होगा समय ऐसा जब आप कोई इवेंट नहीं कर पायेंगे।" तो मैं कहता कि "यह सच नहीं है। मैं इवेंट करना चाहता हूं।" लेकिन परिस्थिति बदल गयी है। मैं लोगों को इस तरह से बुलाकर उनको बीमारी नहीं देने वाला हूं मैं। तो मैं यहां पर हूं अच्छा करने की कोशिश में, जानते हैं आप तक पहुंचना इन विडियोज़ के जरिये आपसे बात करना। ऐसा नहीं कि कमरे में कई लोग हैं; मेरे अलावा यहां पर कोई भी नहीं है। बस मैं हूं; मैं आता हूं; लाइट जलाता हूं; कैमरा चलाता हूं; शूट करता हूं। और फिर कार्ड को लेकर अपलोड कर देता हूं और यह, बस चला जाता है। मुझे वीडियो में बात करने की आदत तो है लेकिन हमेशा काफी लोग होते हैं यहां पर — कोई कैमरा संभालता है; कोई लाइट्स को देखता है; कोई ये करता है; कोई ऑडियो को सुनता है। लेकिन ये सारा सेटअप बना होता है — मैं बस अपना काम करता हूं। तो कौन-सा वाला सच है; क्या है सच्चाई ?

अप्रैल 2019 में कोई ऐसी बात नहीं थी (कम से कम हमारे पास) कोरोनावायरस की कोई खबर नहीं थी। सब ठीक था। और फिर अचानक से ये सब हो गया। दिसम्बर के आसपास हमने सुना कि ये शुरू हो रहा है "कोरोनावायरस, कोरोनावायरस, कोरोनावायरस" और सबकुछ बदलने लगा। फिर अगली बात जो पता चली कि लॉकडाउन हो रहे हैं। लॉकडाउन यहां पर, लॉकडाउन वहां, सब जगह। लेकिन इस स्वांस की सच्चाई नहीं बदली है। और क्योंकि मैं आज ही किसी से फोन पर बात कर रहा था तो उन्होंने कहा कि "इसकी वजह से सब कुछ बदल गया है।" मैंने कहा "नहीं, यह बस एक रूकावट के जैसा है शायद हमारे प्लान में। लेकिन सच्चाई यह है वह असलियत अभी नहीं बदली है।" स्वांस अब भी आप में आती है और इसी से आप पहले भी जीवित थे और इसी से आप अब भी जीवित हैं — और उम्मीद है, अगर सावधानी बरतेंगे तो यह आपको कहीं लम्बे समय तक जीवित रख पायेगी, जैसे आप रहना चाहते हैं। यह अच्छी बात होगी। है ना!।

तो आपका जीवन, आपका अस्तित्व — अच्छा समय है रीसेट करने के बारे में। जाने दें; छोड़ दें वो सब बातें जो आपके कंधों पर हैं वो भार। और एक बार के लिये सीधे खड़े हो जाइये और जीवन में चलिये आगे। इस वक्त से कुछ सीखिये और मजे कीजिये। जीवित रहना इस स्थिति में, इस अजीब स्थिति में रहना। परेशान न हों; कोई जरूरत नहीं परेशान होने की आपको। यह है जो है। आपको क्या करना है कि बस सावधानी बरतिये। और अगर आप सावधानी रखेंगे तो आप ठीक रहेंगे। अच्छे रहेंगे आप।

तो अपना ख्याल रखें आप। सुरक्षित रहें! ठीक रहें! और हां, आप रहिये खुश।

मैं आपसे कल मिलूंगा। धन्यवाद!

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