कनुप्रिया:
यही सवाल लोगों के भी हैं कि विचार जो चल रहे हैं, चलते जाते हैं, चलते जाते हैं। पॉज़िटिव भी आता है, सही भी आता है, सकारात्मक भी और साथ ही साथ नकारात्मक भी, नेगेटिव भी उतना ही आ जाता है। ये जो लगातार चलती एक बातचीत है हमारे दिमाग में विचारों की, उसको उस सकारात्मक तक फोकस कैसे करें ? क्योंकि वह तो एक आएगा और जो नेगेटिव थॉट है, उसकी तादाद बहुत तेजी से आती है।
प्रेम रावत:
बिल्कुल! ये तो — इसको संशय कहते हैं। संशय जब आने लगता है मनुष्य के अंदर, क्योंकि वो जब कमजोर पड़ने लगता है तो उसके अंदर संशय आने लगता है।
आपने देखा होगा, माता-बहनें चक्की चलाती हैं। चक्की चल रही है, चल रही है, चल रही है।
अब कहीं वो — जो माताएं या बहनें हैं, कोई भी चक्की चला रहा है, वो कहे, ‘‘ये इधर क्यों घूम रही है ? इसको ऐसे क्यों नहीं घुमाते हैं ?’’
और फिर इधर से करने लगे, ‘‘नहीं, इसको ऐसे ठीक रहेगा। नहीं, ये ऐसे ठीक रहेगा। नहीं, ये ऐसे ठीक रहेगा।’’ तो ऐसे करते रहेंगे तो आटा तो मिलेगा नहीं। जब भूख लगेगी, आटा तो मिलेगा नहीं।
यही हाल इस दुनिया का है। कोई कहता है, ‘‘ऐसे करो!’’ कोई कहता है, "ऐसे करो!" कोई कहता है, "ऐसे करो!" कोई कहता है, "ऐसे करो!"
और लोग हैं, जो कहते हैं, "कैसे करें ? ऐसे करे ? ऐसे करें ? कैसे करें ?"
"ऐसे नहीं होना चाहिए! नहीं, ऐसे करो! नहीं, ऐसे करो! नहीं, ऐसा करो! नहीं, ऐसा करो!"
जबतक तुम अपने आपको नहीं जानोगे, यह चक्की किस तरीके से चलनी चाहिए, कौन समझाएगा तुमको ?
यह तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है कि यह तुम्हारे — संभावना यह है कि तुम्हारा यह जो जीवन है, इसको तुम सुख और शांति से बिता सकते हो। यह संभावना है और इसका पहला फैसला तुमको लेना पड़ेगा। कोई और नहीं ले सकता।
क्या चाहते हो तुम ? जलन करते हो, ईर्ष्या करते हो ? करते हो ?
तुम्हारे जीवन के अंदर महाभारत हो न हो, छोटी-छोटी महाभारत तुम्हारे परिवार में होती रहती है। क्या परिवार का यही मतलब होता है ?
"बुजुर्ग हो। बुजुर्ग हो तो बात करना सीखो, हुक्म चलाना नहीं — तू ऐसा नहीं करेगा!"
अरे! बात करना सीखो! बैठाओ! पहले समझाओ! बात करो! उसकी सुनो! अपनी कहो, फिर उसकी सुनो!
कई लोग आते हैं मेरे पास कि "जी! परिवार में ये सारी चीजें — झगड़ा बना रहता है। कैसे सुलझाया जाए ?"
मैं सोच रहा था इसके बारे में। जब लड़का-लड़की में प्यार होता है — पहला-पहला प्यार! पहला-पहला प्यार!
क्या करते हैं ?
बात करते हैं। तत...तत...तत..तत...तत! उससे — आइसक्रीम से पहले, कुल्फी से पहले बात होती है।
"कैसे हो ? क्या है ? कैसा रहा तुम्हारा दिन ?"
और अगर लड़की कहे, ‘‘मैं तो परेशान हूं।"
"क्या परेशानी है ?"
नहीं ? मैं गलत कह रहा हूं ? शादी के बाद ? बात-वात सब खत्म!
"मेरी रोटी कहां है ? तैंने — मेरे को करारी रोटी नहीं चाहिए थी, तैंने ज्यादा सेंक दी। इसमें नमक ज्यादा डाल दिया।"
अगर यही बात तुम तब करते तो तुम्हारा आगे झंझट ही नहीं चलता। वो तुम्हारी गर्ल-फ्रैण्ड कब का तुमको छोड़-छाड़ के भाग जाती। परंतु तुम भी ऐसे निकले — मीठी-मीठी बात! अपना उल्लू सीधा करने के लिए और अब शादी हो गयी और मीठी बात सब खत्म।
अरे! वो मीठी बात लाओ!
पति घर आता है। छः घंटे, सात घंटे की नौकरी करके, उसको लिस्ट मत थमाओ!
उससे पूछो, "‘उसका दिन कैसे गया ?"
तुमको कुछ करने की जरूरत नहीं है। सिर्फ सुनने की जरूरत है। सुनने की ताकत लोगों में खत्म हो गयी है। सुनो! तुमको हां मिलाने की जरूरत नहीं है। तुमको हां कहने की जरूरत नहीं है। तुमको ना कहने की जरूरत नहीं है। सिर्फ सुनने की जरूरत है।
Text on screen:
जब तक तुम अपने आपको नहीं जानोगे,
यह जीवन किस तरीके से चलना चाहिए,
कौन समझायेगा ?