सुख और शांति वाला संसार कैसा होगा ?

शांति का वास्ता सिर्फ एक चीज से है और वह है मनुष्य। और शांति उसके अंदर है!
Dec 17, 2019
जिस शांति की हम तलाश कर रहे हैं, वह शांति हमारे अंदर है। जब मनुष्य उस शांति का अनुभव करने लगता है और वो जान लेता है कि “ये मेरी प्रकृति है, मैं ये हूं!” फिर किसी चीज को बदलने की जरूरत नहीं है।

Text on screen : अगर इस संसार में सिर्फ सुख और शांति होगी तो वह संसार कैसा होगा ?

प्रेम रावत:

देखिए! बात यह है कि इस दुनिया के अंदर लड़ाई — अगर हम इतिहास को देखें तो इतनी ज्यादा नहीं हुई हैं। लोगों ने परिश्रम यही किया है कि शांति का वातावरण बने। जब मनुष्य खेती करने लगा, तब सारा चक्कर हुआ। क्योंकि अब खेती है। तो किसी ने हल चलाया, किसी ने पानी दिया, किसी ने बीज बोया — अब उसमें फसल तैयार है और कोई ऐसा है, जो ये सारी मेहनत नहीं करना चाहता है। और जब फसल तैयार हो गई तो उसको काट के ले गया। तब जाकर के लोगों ने ये सारा प्रबंध शुरू किया। तब से राजा बने, तब से लड़ाइयां चालू हुईं! किसकी जमीन है — उससे पहले किसी को क्या मतलब था, किसकी जमीन है ? सभी की जमीन है। जो जा रहा है, उसकी जमीन है। परंतु एक बार जब खेती होने लगी, तब लोगों के जीवन में ये हो गया कि नहीं, ये मेरी है, ये मेरी है, ये ये है, ये वो है! तो बात ये है कि ये सारी चीजें — इन पर लड़ना, इन पर झगड़ना!

अब सबसे ज्यादा लड़ाई होती है — ये मेरा है! अब ये ही बात नहीं है कि ‘‘यह मेरा है! यह मेरा विचार है और तुमको इस तरीके से होना चाहिए!’’ इस पर भी लड़ाई होती है। फिर शांत हो जाते हैं। और जब शांत हो जाते हैं, तब फिर दुबारा से निर्माण शुरू होता है, उन्नति होती है! यह तो मनुष्य को अच्छी तरीके से मालूम है कि शांति क्या लाती है और अशांति क्या लाती है ? इसमें दूरदर्शी होने की जरूरत नहीं है। जो है, अगर उसको देखा जाए! क्योंकि इस संसार में समस्या ज्यादा नहीं है। थोड़ी समस्या है। और मैं समस्याओं को छोटा नहीं बनाना चाहता। लोग भूख से मरते हैं। अब ये समस्या छोटी क्यों है मेरे हिसाब से ? क्यों है ? एक तो लोगों के हिसाब से बहुत बड़ी समस्या है! समस्या छोटी ये इसलिए है कि इस पृथ्वी पर इतना खाना उपजता है, उगाया जाता है कि वो सबको खिला सके। अगर पृथ्वी छोटी पड़ती खाना उगाने के लिए तो यह बहुत बड़ी समस्या होती। पर पृथ्वी इस चीज के लिए अनिवार्य है। और इतना खाना उगता है, परंतु वो खाना, ताकि चावल, गेहूं, इन चीजों का दाम control करने के लिए फेंका जाता है। वो ज्यादा जरूरी है लोगों के लिए पैसा, जिसको वो खा नहीं सकते हैं, जिसको वो पी नहीं सकते हैं। वो समझते हैं कि इसके होने से सबकुछ है और वो ये भूल जाते हैं कि एक ये दीवाल है, जब मैं पैदा हुआ और एक ये दीवाल है कि मेरे को जाना है, और जिस दिन मैं इस दीवाल तक पहुंचूंगा और इसके दूसरी तरफ जाऊंगा — एक कौड़ी पैसा मैं नहीं ले जा सकता हूं। और मेरे पेट में कोई ऐसी चीज नहीं है, जो पैसे को हजम कर ले। एक चीज नहीं है!

ये पैसा है क्या ? मनुष्य का बनाया हुआ है। भगवान ने बनाया — प्रकृति ने बनाया सोना, मनुष्य ने लगाया उसका दाम! और जब दाम लगने लगा तो फिर वो अपने भविष्य को कोसता है कि उसके पास इतना क्यों है, मेरे पास इतना क्यों नहीं है ? ये सारी चीजें मनुष्य की बनाई हुई हैं। और मनुष्य ही इनको झेलता है, इन्हीं चीजों से दुखी होता है। अपने भविष्य को कोसता है कि ‘‘ऐसा क्यों हो रहा है मेरे साथ ? मैं क्यों नहीं अमीर हूं ? ये क्यों अमीर है ? मैं गरीब क्यों हूं ? भगवान ने ऐसा क्या बनाया ?’’ फिर धर्म की बात आ जाती है। ‘‘अरे! ये तो मेरे पिछले जन्मों का फल मिल रहा है मेरे को!’’ और ये सब चलता रहता है! परंतु सही बात तो ये है कि शांति हम सबके अंदर है। शांति कोई ऐसी वस्तु नहीं है, जो बाहर हो! वह हमारे अंदर है।

घट में है सूझे नहीं, लानत ऐसी जिंद।

तुलसी या संसार को, भयो मोतियाबिंद।।

Cataract — मोतियाबिंद! चीज जो है, वो दिखाई नहीं दे रही है साफ-साफ! यही होता है मोतियाबिंद से। और जब वो मोतियाबिंद निकल जाता है तो फिर साफ दिखाई देने लगता है कि जिस चीज की हमको जरूरत है, जिस शांति की हम तलाश कर रहे हैं, वह शांति हमारे अंदर है। जब मनुष्य उस शांति का अनुभव करने लगता है और वो जान लेता है कि ‘‘ये मेरी प्रकृति है, मैं ये हूं! मैं ये नहीं हूं, मैं ये हूं!’’

अब देखिए! एक समय था कि आईना नहीं था। आईना रूप जैसी कोई चीज नहीं थी। तो लोग अपने आपको उस तरीके से नहीं देख पाते थे, जिस तरीके से आज देख पाते हैं। या तो पानी में लोग अपनी परछाईं देखते थे। पर पानी की परछाईं तो आप जानते ही हैं, कभी इधर-उधर पानी हिल रहा है तो वो ठीक ढंग से दिखाई नहीं देगी। कोई चमकीली चीज! पर चमकीली चीज होने के लिए पैसा होना जरूरी था। अमीरों को ही उपलब्ध थी, गरीबों को ज्यादा उपलब्ध नहीं थी। अर्थात् लोग अपने चेहरे को नहीं जानते थे, नहीं पहचान पाते थे। और जब आईना आया तो अब तो सब लोग देखते हैं। अगर अपनी फोटो देखेंगे तो कहेंगे कि ‘‘ये तो मेरी फोटो है!’’ तो कैसे आपको मालूम ?

क्योंकि आप जानते हैं कि आपका चेहरा कैसा दिखता है! ठीक इसी प्रकार से जब मनुष्य अपनी प्रकृति को समझता है तो उसको समझ में आता है कि शांति मेरे से दूर नहीं है। मैं शांति से दूर नहीं हूं, शांति मेरे से दूर नहीं है। और मेरी प्रकृति में अशांति भी है। मेरी प्रकृति में लड़ना भी है! क्योंकि लड़ाई जो चीज है, वो बाहर से नहीं आती है, वो मनुष्य के अंदर से ही आती है। और शांति भी मनुष्य के अंदर से आती
 है। जब दोनों चीजों को वो पहचानने लगता है तो वो जानता है कि अच्छा क्या है और बुरा क्या है ? और जबतक वो अपने आपको नहीं जानेगा, वो समझने की कोशिश करेगा कि अच्छा क्या है, बुरा क्या है — वो जो कुत्ता अपनी दुम को chase करता रहता है, फिरता रहता है, फिरता रहता है, उसकी हालत, वैसी मनुष्य की हो जाएगी। और होगा क्या ? शांति दूर रह जाएगी। जब मनुष्य जानता ही नहीं है कि ये अशांति का कारण भी मैं ही हूं और शांति का कारण भी मैं ही हूं तो वो दूसरों की तरफ देखेगा, लीडरों की तरफ देखेगा। और लीडर तो कर नहीं सकते। और करेंगे कैसे ? जब स्रोत उसका मनुष्य है, जब मनुष्य ही नहीं बदलने के लिए तैयार है, जब मनुष्य ही अपने आपको पहचानने के लिए तैयार नहीं है तो लीडर क्या करेगा ? चटनी किस चीज की बनाएगा ? क्या करेगा ? मतलब, क्या solution देगा किसी को ? Solution हमेशा एक ही रहा है — अपने आपको जानो! अपने आपको पहचानो! जबतक जानोगे नहीं, जबतक पहचानोगे नहीं, ये बात समझ में नहीं आएगी कि शांति आपसे दूर नहीं है। और उस दिन होगा क्या ? उस दिन होगा क्या ? उस दिन क्या बदल जाएगा ऐसा ? अगर ये भी मान के चलें कि चलिए! एक दिन ऐसा आएगा कि सब अपने आपको जानते हैं। उस दिन बदलेगा क्या ? पर बदलना किस चीज को है ? किस चीज की वजह से, बाहरी चीज की वजह
 से हमारे मन में अशांति होती है ? ये तो अंदर की ही बात है! तो इस दुनिया को बदलने की जरूरत नहीं है। इसका ये मतलब नहीं है कि सेलफोन गायब हो जाएंगे! ना। बाहर किसी चीज को बदलने की जरूरत नहीं है। किसी चीज को बदलने की जरूरत नहीं है।

अगर आपके पास एक मोटर साइकिल है और मोटर साइकिल का स्पार्क, प्लग खराब हो गया और आपकी मोटर साइकिल नहीं चल रही है। तो आप मेरे को बताइए कि उस मोटर साइकिल को ठीक करने के लिए क्या करना पड़ेगा ? उसका रंग बदलना पड़ेगा ? रोड बदलने पड़ेंगे ? साइन बदलने पड़ेंगे ? गैस टैंक बदलना पड़ेगा ? टायर बदलने पड़ेंगे ? नहीं। स्पार्क-प्लग बदलना पड़ेगा। वो बदल दीजिए, सब ठीक है! आपके पास एक टार्च है! फ्लैश लाइट है, टॉर्च है! उसमें एक बल्ब है। बल्ब खतम हो गया। तो क्या करना चाहिए आपको ? नई बैटरी ? बाहर उसको दूसरे रंग में रंग दें ? नहीं। बल्ब नया लाइए, लगाइए! वो जलने लगेगा! यही बात मनुष्य के साथ भी है। वो अपने आपको जाने, अपने आपको समझे तो फिर ये सारी चीजें — इनको बदलने की जरूरत नहीं है। ये तो — मनुष्य का काम है आविष्कार करना! वो चीज ही ऐसी तिकड़मी है। मतलब, आप देखिए कि रोटी बेलना। एक चीज है, जो हिन्दुस्तान में बहुत तादाद में होता है। तो रोटी बेलना — उसके लिए बेलन चाहिए, उसके लिए एक फ्लैट जगह चाहिए! उसके लिए आटा चाहिए! आटा को गूंधना है! सबका अपना—अपना तरीका है। सबका अपना-अपना — मैंने देखा है। सबका अपना-अपना तरीका है। कोई बड़ी स्टाइल से बेलता है — कोई ये करता है, कोई वो करता है। रोटी बनाने वाले भी ऐसे हैं कि कई बार तो उसको उछालते हैं और उसको पकड़ते हैं। फिर करते हैं। सबका अपना-अपना तरीका है। क्योंकि चीजों को थोड़ा-सा बदलना, थोड़ा-सा आसान बनाना, ये तो मनुष्य के दिमाग में एक कीड़ा है। ये तो वो करते आया है और करते आएगा। पर इससे न कोई खराबी है, न कोई अच्छाई है। क्योंकि स्रोत शांति का वो है। वो चीजें नहीं! मतलब, जिसको खाना बनाना नहीं आता है, उसको आप अच्छी से अच्छी चीजें दे दें, इसका मतलब नहीं है कि खाना स्वादिष्ट बनेगा। परंतु जिसको आता है, अगर उसको इधर-उधर की भी चीज मिल जाएगी, वो उसी को लेकर के — तिकड़मी क्योंकि है मनुष्य, बढ़िया चीजें बना लेगा। तो ये अंतर है।

ये जो चीज — ध्यान जो है शांति के बारे में हम दुनिया की तरफ डालते हैं, बाहर की चीजों की तरफ डालते हैं। क्योंकि हम ये समझते हैं कि जो कुछ भी बाहर हो रहा है, वही हो रहा है। परंतु वो बाहर तो बाहर है। और जड़ इसकी है मनुष्य के अंदर! और जबतक वो नहीं समझेगा, तबतक ये कुछ भी हो! कुछ भी हो! अब क्या आविष्कार होना खराब बात है ? बिल्कुल नहीं। क्या सेलफोनों को अच्छा नहीं होना चाहिए ? बिल्कुल अच्छा होना चाहिए! क्या सेलफोन इस समय बहुत बड़े हैं ? बिल्कुल बड़े हैं! आप अपने जैकेट में डालिए तो जैकैट ऐसे नीचे हो जाने लगती है। सेलफोनों को मालूम नहीं है — कब शांत होना चाहिए, कब शांत नहीं होना चाहिए! परंतु ये सारी चीजें — इनसे कोई तुक नहीं है, इससे कोई वास्ता नहीं है शांति का। शांति का वास्ता है तो सिर्फ एक चीज से है, वो मनुष्य से है। और शांति उसके अंदर है और आज है! तो ये प्रश्न कि ‘‘भविष्य में अगर ऐसा कभी हो!’’ नहीं, ये तो है! ये तो अभी है! परंतु ये प्रगट नहीं हो रहा है। और प्रगट इसलिए नहीं हो रहा है, क्योंकि ध्यान नहीं है उस तरफ। और थोड़ा-सा भी ध्यान उस तरफ जाए तो सबकुछ बदल सकता है।

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