प्रेम रावत जी:
सभी लोगों को हमारा नमस्कार!
आज जिस स्थिति में काफी सारे लोग हैं, सचमुच में हमदर्दी की बात है कि ऐसा हो रहा है जगह-जगह कि जो शांति है वो मनुष्य उस तक पहुंच नहीं पा रहा है। तो उसके बारे में ये जो कोविड केस है, इसके बारे में मैं काफी कुछ कहना चाहता हूं। क्योंकि कई बार इस संसार में रहते हुए एक हालत बन जाती है मनुष्य की, और हालत कुछ ऐसी है कि अंधेरे में रहते-रहते, रहते-रहते, रहते। अंधेरे में रहते, रहते, रहते कुछ ऐसा हो जाता है इतनी आदत पड़ जाती है अंधेरे की कि जब रोशनी आती है तो मनुष्य उस रोशनी की तरफ देख नहीं पाता है। उसको अपना चेहरा या अपनी आंखें कहीं दूसरी तरफ करनी पड़ती हैं। तो कई बार मनुष्य के साथ यही हाल हो जाता है कि अंधेरे में रहते-रहते, इस संसार के अंदर रहते-रहते सच क्या है और सच क्या नहीं है। जो असत्य है, सत्य है इसमें वो अंतर देख नहीं पाता है, क्योंकि एक तरफ देखा जाये तो बहुत सारे कानून हैं। तो देश के कानून हैं, शहर के कानून हैं, पुलिस के कानून हैं, मिलिट्री के कानून हैं। कानून ही कानून हैं। और इन कानूनों में, कानूनों में रहते-रहते-रहते हमको लगता है कि यही कानून है।
परंतु एक और कानून है और वो प्रकृति का कानून है। ये कानून जो कुछ भी मनुष्य बनाता है इसको वो बदल भी सकता है और बदलने की सभी कोशिश करते ही हैं। जब कोई कानून तोड़ता है तो वो “अजी, माफ कर दो, अब अगली बार नहीं होगा।” तो जो प्रकृति का कानून है उसके साथ ये सब नहीं चलता है। उस प्रकृति के कानून में सबको बंधे रहना है, चाहे वो कोई भी हो, चाहे वो अमीर हो, चाहे वो गरीब हो। क्योंकि जो आजकल के कानून हैं वो अमीर लोगों के लिए कम हैं गरीब लोगों के लिए ज्यादा हैं। अब गरीब बेचारा क्या करे उसको तो रहना है जैसा रहना है। अब उसको बचाने के लिए भी कौन आयेगा। तो बड़े-बड़े वकील किये जाते हैं जो अमीर लोग हैं वो करते हैं वो बहस करते हैं। सत्य को झूठ बताते हैं झूठ को सत्य बताते हैं कई बार और लोग निकल जाते हैं।
परंतु मनुष्य उस प्रकृति के कानून से उसका कोई वकील नहीं है उसके लिए जो कुछ भी कानून है प्रकृति के वो सबके लिए लागू हैं। चाहे वो जीव हों, चाहे वो मनुष्य हो, चाहे वो अमीर हो, चाहे वो गरीब हो, चाहे वो अच्छा हो, चाहे वो बुरा हो। क्योंकि अच्छा-बुरा का भी जो कानून है ये मनुष्य ने ही बनाया है और अलग-अलग देशों में अलग-अलग कानून हैं। कोई बांये चलता है रोड पर, कोई दांये चलता है रोड पर। ये भी कानून हैं परंतु ये मनुष्यों के बनाये हुए हैं, सोशल सोसायटी के ये कानून बनाये हुए हैं।
परंतु बात फिर आती है... दो बातें हो गयीं, एक तो जो कानून है। और दूसरी बात कि अंधेरे में इतना, अंधेरे की इतनी आदत पड़ गयी है कि जब प्रकाश आने लगता है, जब लाइट आने लगती है तो आदमी देख नहीं पाता। आज जो हालत बनी हुई है सारे संसार के अंदर। एक छोटे-से कीटाणु को लेकर इतना छोटा कि उसको आंख से भी नहीं देखा जा सकता, वायरस। परंतु क्यों ? इसका एक हल है बड़ा साधारण-सा हल है -- मास्क पहनो, हाथ धोओ और आइसोलेशन में रहो। ज्यादा कुछ करने की जरूरत नहीं है। और जब समय आये तो जो वैक्सीन है, वो दवाई -- वैक्सीन लें और फिर सब ठीक है। परंतु ये काम मनुष्य नहीं कर पा रहा है।
मास्क पहनना क्यों ? हमने -- जब हम छोटे थे हमने तो बहुत देखा जो जैन धर्म को मानने वाले थे वो सब मास्क पहनकर चलते थे तो ये कोई नयी चीज नहीं है। और मास्क पहना तो उससे जो फायदा होगा वो यह है कि वायरस से बच सकते हैं। हाथ धोयें ताकि आंख से, नाक से, कुछ खुजाने से वो वायरस तुम पर नहीं आये। परंतु मास्क नहीं पहनते हैं लोग। क्यों नहीं पहनते हैं ? अगर जो डॉक्टर सर्जरी कर रहा है अगर वो कहने लगे कि मेरे को मास्क नहीं पहनना है, मैं मास्क नहीं पहनूंगा। तो कहेंगे “नहीं, नहीं, नहीं जी डॉक्टर साहब आप जरूर मास्क पहनियेगा।” तो डॉक्टर के लिए तो अनिवार्य है मास्क पहनना, परंतु जो मनुष्य है उसके लिए कठिन हो जाता है। क्यों?
आइसोलेशन की बात आती है लोग चाहते हैं कि सबकुछ वैसा हो जैसे हो रहा था। तो जैसे हो रहा था, उसी रास्ते से तो ये वायरस आयी। अरे, कुछ तो फर्क होना चाहिए, कुछ तो फर्क पड़ना चाहिए। और सबसे बड़ा फर्क ये पड़ना चाहिए कि मनुष्य अपने आपको समझे। वो औरों के साथ रहना स्वीकार करने में उसको कोई दिक्कत नहीं है। औरों के साथ रहने में उसको कोई दिक्कत नहीं है, परंतु अपने साथ रहने में मनुष्य को दिक्कत है। अब आप बताइये ये सही बात है या गलत बात है! औरों के साथ रहना उसको स्वीकार है। औरों के साथ ये करना, वो करना, पार्टी में जाना, ये करना, वो करना क्योंकि सबसे बड़ी चीज मनुष्य के लिए अब क्या हो गयी है और मैं एक देश की बात नहीं कर रहा हूं मैं सब जगह की बात कर रहा हूं। बोर्डम, बोर होना। करने के लिए कुछ नहीं है।
मैं पढ़ता हूं कि लोग लिखते हैं कि “बहुत बोर्डम हो गयी है, अब हम नहीं रह सकते इस तरीके से।” क्योंकि अपने साथ रहने की जो विधि है वो मनुष्य भूल गया है। वो ये भूल गया है कि वो चीजों का अनुभव कर सकता है जो प्रकृति की सुंदरता जो बनाने वाले ने सुंदरता बनायी है इसकी वो, इसका सेवन कर सकता है। परंतु नहीं, क्यों ? क्या बंदर बिठा दिया सबके पीठ के पीछे -- सोशल मीडिया। अब जहां जाओ, जहां जाओ, लोग अपना फोन लिये बैठे हैं टक-टक, टक-टक, टक घंटो-घंटो टक-टक, टक-टक, टक-टक, टक-टक, टक-टक, क्यों ? बोर्डम नहीं चाहिए। बोर हो जायेंगे, बोर्डम नहीं चाहिए। ये बोर्डम आयी कहां से, भाई एक समय था कि लोगों के पास फोन नहीं थे लोग भजन-अभ्यास करते थे, गुणगान करते थे, सोचते थे, विचारते थे। प्रकृति को देखते थे और उसका आनंद लेते थे। वो भी मनुष्य थे, वो भी जीते थे। खाना वो भी खाते थे। और हम भी मनुष्य हैं, खाना हम भी खाते हैं। प्रकृति वही है। हो सकता है कि नदी दूसरे रास्ते से चलती हो पर नदी तो नदी है। समुद्र समुद्र है। हमने नाम रख दिये हैं। अलग-अलग नाम। हो सकता है उस समय वो नाम नहीं हों। परंतु समुद्र तो समुद्र था। पहाड़ पहाड़ थे। किसी ने तो देखा वो पहाड़ है, कितना सुंदर है उसमें से बर्फ है, ये सबकुछ चीजें, प्रकृति को देखना, उसके बारे में सोचना, अपनी जिंदगी के बारे में सोचना कि मैं कौन हूं, कहां से आया, कहां जाऊंगा!
यही जो हम सुनते हैं, पढ़ते हैं। ये बात तो आपने मेरे मुंह से बहुत बार सुनी होगी --
विधि हरि हर जाको ध्यान करत हैं, मुनिजन सहस अट्ठासी।।
सोई हंस तेरे घट माहीं, अलख पुरुष अविनाशी।।
तो किसी ने तो अपने अंदर झांक के देखा होगा, ये कहने से पहले। ये बात अगर आज दुनिया को बोरिंग लगती है तो कुछ गड़बड़ है। क्योंकि ये बोरिंग बात नहीं है कि जो -- विधि हरि हर -- ब्रह्मा विष्णु और महेश भी जिसका ध्यान करते हैं।
विधि हरि हर जाको ध्यान करत हैं, मुनिजन सहस अट्ठासी।।
सोई हंस तेरे घट माहीं, अलख पुरुष अविनाशी।।
तो क्या इसकी जरूरत है। जब वो बैठा है, जब वो अंदर है और वही एक सहारा है क्योंकि क्या होगा जिसके लिए तुम सारा दिन दौड़ते हो, जिस माया के लिए सारे दिन तुम दौड़ते रहते हो, अंत समय में ये माया क्या करेगी -- बॉय-बॉय, जाओ। एक ही है जो था, जो है, जो रहेगा। अगर उसको नहीं पहचानने की कोशिश की तो फिर फायदा क्या हुआ। ये आने का, जाने का फायदा क्या हुआ। व्यस्त रहना, ये तो चींटी भी जानती है। कभी चींटी को देखा है व्यस्त रहती है। मधुमक्खी भी जानती है, व्यस्त रहती है। कभी यहां जाती है, कभी वहां जाती है। उस फूल के पास जाती है, उस फूल के पास जाती है। उसमें देखती है कि शहद है या नहीं है। ये तो सबको मालूम है। फिर मनुष्य का जो शरीर है ये क्यों धारण किया ? क्यों ये है! इससे क्या मनुष्य जान सकता है ? तो बात है कि --
भूले मन समझ के लाद लदनियां।
थोड़ा लाद बहुत मत लादे, टूट जाये तेरी गरदनियां।।
गरदन टूट रही है, सबकी, सबकी। ये महामारी जो है ये सबको, सबको परेशान करके बैठी है। हमको भी परेशान करने लगी। कैसे ? अब कहां जायेंगे, क्या होगा, कैसे होगा, ये होगा, वो होगा। हमको भी लगा कि “भाई, कुछ न कुछ तो ये बीमारी है अब ये कहीं जाने नहीं देगी।” मैंने कहा, नहीं, अपने आपसे हमने कहा -- धीरज रखो, धीरज रखो। तो मौका मिला। यूरोप में भी थे पिछले साल। इस साल गये, अभी जो मैं वापस आया हूं तो गया था मैं ब्राज़ील गया, ब्राज़ील के बाद केपटाउन गया, केपटाउन के बाद बार्सिलोना गया, बार्सिलोना के बाद वापस आया। तो मौका मिला। धीरे-धीरे, धीरे-धीरे, मौका मिला। जो बदलना है वो मेरी रफ्तार से नहीं बदलेगा वो अपनी रफ्तार से बदलेगा। जो धुन बज रही है, जो धुन बज रही है अगर मैं गाना चाहता हूं अपना साज़ बजाना चाहता हूं तो मेरे को भी उसी धुन में बजाना पड़ेगा। अगर मैं अलग से बजाने लगूं तो सुनने में वो अच्छा नहीं लगेगा और यही बात है।
तो लोग हैं, कोई किसी को, अब धीरज कौन रखेगा ? ये धीरज, धीरज रखने की तो बात ही नहीं है। उस स्थान पर आओ ये करो, वो करो, सबकुछ, सबकुछ हो रहा है। स्केजुअल, स्केजुअल, स्केजुअल, स्केजुअल, स्केजुअल परंतु जो आनंद लेने का स्केजुअल है, जो हृदय भरने का स्केजुअल है इसके बारे में क्या करोगे। तो मैं क्या कह रहा हूं कि मनुष्य को अंधेरे की इतनी आदत पड़ सकती है कि जब रोशनी आये तो वो उसको देख ना पाये। अपने से ये पूछना है कि कहीं तुम्हारे साथ यही तो नहीं हो रहा है। डर नहीं। सबको डर लगता है अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा। धीरज रखो, धीरज रखो। जो उसका कानून है, जो प्रकृति का कानून है इसको कोई नहीं तोड़ सकता। इसके लिए कोई वकील नहीं है। आज मनुष्य को क्या हो गया है, क्या कर दिया है मनुष्य ने। अंधेरे में रहते-रहते, अंधेरे में रहते-रहते भगवान को इंसान बना दिया। भगवान को इसकी जरूरत है, भगवान को उसकी जरूरत है, उसको ये चाहिए, उसको ये चाहिए, तुम ये करो, तुम वो करो, ऐसा करो, वैसा करो, वहां जाओ, ये करो। भगवान को इंसान बना दिया। और हां जी, इंसान को भगवान बना दिया। अंधेरे में ये होता है। उजाले में क्या होता है कि --
विधि हरि हर जाको ध्यान करत हैं, मुनिजन सहस अट्ठासी।।
सोई हंस तेरे घट माहीं, अलख पुरुष अविनाशी।।
उजाले में ये होता है। अंधेरे में क्या होता है ? पता नहीं जी! भगवान कैसा है, उसको इंसान बना दो। जो, जो सब जगह रहता है। जो सब जगह रहता है, जो सर्वव्यापी है, उसके लिए घर बना दिया। वो कहां बैठेगा, वो तो सब जगह है। ऊपर भी है, नीचे भी है। पानी में भी है, वायु में भी है। पृथ्वी में भी है, पेड़ में भी है। पौधे में भी है। मनुष्य में भी है, जानवर में भी है। सब जगह है। उसके लिए क्या बना दिया, उसके लिए घर बना दिया। जिसको घर की जरूरत ही नहीं है। तो भगवान को बना दिया है इंसान, इंसान को बना दिया है भगवान। बड़े-बड़े नाम दे दिये। परंतु जिस दिन वो कानून आयेगा वो ऐसा उठायेगा कैसे कि --
भूले मन समझ के लाद लदनियां।
थोड़ा लाद बहुत मत लादे, टूट जाये तेरी गरदनियां।।
और इसकी आखिरी पंक्ति क्या है --
कहत कबीर सुनो भाई साधो, काल के हाथ कमनिया।।
और वो जिसको पकड़ लेगा, पकड़ लेगा। रख दिया, रख दिया अब कोई भी हो। बड़े-बड़े हैं, लेटे हुए हैं। भक्त आ रहे हैं हाथ जोड़ रहे हैं। कोई आशीर्वाद देने के लिए नहीं है क्योंकि जो आशीर्वाद दे रहा था वो तो चले गया, पर अंधेरे में ये होता है। जब आंख बंद की हुई है जिसको कहते हैं अंधविश्वास -- उसमें यही होता है।
और अब तो कितने लोग डरे हुए हैं। कुछ भी कह दो लोगों को। यहां तक कह दो कि तुम एक पत्ते पर किसी का नाम लिख दो तो तुम ठीक हो जाओगे, लोग करने के लिए तैयार हैं। ये सोचने के लिए तैयार नहीं हैं कि इससे मेरा क्या होगा। ये सोचने के लिए तैयार नहीं हैं और जरूरत है यही सोचने के लिए कि भाई ये जो मेरे को मौका मिला है, अभी भी मेरे अंदर ये स्वांस आ रहा है और जा रहा है यही भगवान की कृपा है। दौलत भगवान की कृपा नहीं है। दौलत भगवान की कृपा नहीं है। शोहरत भगवान की कृपा नहीं है।
क्या है कृपा -- ये स्वांस जो तुम्हारे अंदर आ रहा है, जा रहा है ये कृपा है। इसकी कोई गारंटी नहीं है, कब तक आयेगा, कब तक जायेगा। कोई गारंटी नहीं है। तुम्हारे पैर पर ये नहीं लिखा है कि एक्सपायरी डेट क्या है। तारीख, कब तुमको जाना है ये किसी को नहीं मालूम। कब आये थे ये किसी को नहीं मालूम। कब जाओगे ये किसी को नहीं मालूम। हां, जब तुम पैदा हुए तब तो लोगों को मालूम था पर जब तुम आए, कब आओगे ये किसी को नहीं मालूम।
तो ये स्वांस आ रहा है, जा रहा है। क्या सचमुच में इस कृपा को कभी स्वीकार किया है। या अपनी तमन्नाएं लेकर चलते रहते हैं। अच्छा हो अगर ऐसा हो जाये, अच्छा हो अगर वैसा हो जाये। अच्छा हो अगर ये हो जाये, अच्छा हो वो हो जाये। यही तो सारे दिन यही लगा रहता है। अच्छा हो ये हो जाये, अच्छा हो वो हो जाये। मां-बाप हैं बच्चे को देखते हैं, ये पढ़ता क्यों नहीं है ? अच्छा हो कि ये पढ़े-लिखे बड़ा हो जाये, ये करे, वो करे। ये नहीं है कि ये जिंदा है। ये मेरा सुपुत्र है जिंदा है कितनी अच्छी बात है। ना, ये ऐसा होना चाहिए, ये ऐसा होना चाहिए, मेरे साथ ये हो जाये, मेरा प्रोमोशन हो जाये, मेरा ये हो जाये, मेरा वो हो जाये। इसी पर सभी लोग लगे रहते हैं।
परंतु अपने जीवन के अंदर उन सब चीजों से हट के देखो। जितना तुमको समय मिला है, जितना भी समय मिला है, इसका पूरा-पूरा फायदा उठाओ। इसीलिए संत-महात्माओं ने कहा है कि इन सारी चीजों में मत खोये रखो अपने आपको। ये बार-बार नहीं मिलेगा। ये मिला है सो मिला है। बहुत बड़ी बात हो गयी। अब जब आखिरी समय आने लगता है, तब लोगों को डर लगने लगता है, तब, तब इस बारे में सोचने की कोशिश करते हैं। ये बात अंत समय में सोचने की नहीं है। आज सोचने की है, अब सोचने की, हमेशा सोचने की है। ये मनुष्य शरीर इसके लिए नहीं मिला है। मनुष्य शरीर मिला है उस चीज का सेवन करने के लिए, उस चीज का आनंद उठाने के लिए जो तुम्हारे अंदर है। बाहर नहीं, अंदर है। उल्टा-सीधा, उल्टा-सीधा होता रहता है। लोग लगे हुए हैं। ऐसा क्यों नहीं होता है जी, ऐसा क्यों नहीं होता जी, ऐसा क्यों नहीं होता जी, ऐसा क्यों नहीं होता जी। कुछ ये पछता रहे हैं कि मैंने पिछले जन्म में क्या कर्म किये होंगे। अरे, पिछले जन्म की बात छोड़ो, इस जन्म में तुमने क्या कर्म किये हैं। ये कोई सत्कर्म है, कहां से!
तब ये जो महामारी है इससे बचने के लिए, इससे बचने के लिए थोड़ी-सी चीज करनी है। मास्क पहनो, आइसोलेशन -- लोगों के बीच में मत जाओ। मास्क भी कैसा पहनना है, मास्क ऐसा पहनो -- अब कई लोग हैं जो कंबल लगा लेते हैं कंबल से नहीं होगा। मास्क चाहिए ऐसा जो उस वायरस को तुम्हारे तक न आने दे। कपड़े का मास्क उससे नहीं चलेगा। उसके लिए KN-95 मास्क चाहिए। और हाथ धोइये। पर सबसे बड़ी बात डरो मत। आनंद में रहो। जो है, धीरज रखो। ये भी एक दिन जायेगा। ये हमेशा के लिए नहीं है। ये भी एक दिन जायेगा।
बात इतनी है कि एक दिन तुमको भी जाना है। कोई चीज यहां स्थायी नहीं है। न पहाड़, बड़ी-बड़ी मूर्तियां, बड़ी-बड़ी इमारतें जो मनुष्य बनाता है। ये भी हमेशा नहीं रहेंगी। सबने जाना है। इस पृथ्वी ने भी जाना है, सूरज ने भी जाना है, चंद्रमा ने भी जाना है। सब चीजों ने, जो बनी हैं वो एक दिन उसका अंत होना अनिवार्य है। परंतु जबतक तुम जीवित हो, जबतक ये स्वांस तुम्हारे अंदर आ रहा है, जा रहा है। डर से नहीं, हिम्मत से ये समय गुजारो। इसमें हिम्मत की जरूरत है। नहीं तो सारी तरफ से ऐसा लग रहा है कि अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा, अब क्या होगा। बात ये गवर्नमेंट की नहीं है, बात ये पुलिस की नहीं है। बात ये मिलिट्री की नहीं है। बात ये इन कानूनों की नहीं है। वो जो एक कानून है -- प्रकृति का कानून है, बात सिर्फ उसकी है। और अपने जीवन के अंदर जो कुछ भी, जो कुछ भी है सबसे बड़ी बात कि तुम्हारे अंदर जबतक ये स्वांस आ रहा है, जा रहा है इसका पूरा-पूरा फायदा उठाओ। आनंद लो, जो तुम्हारे अंदर का आनंद है, बाहर का आनंद नहीं। अंदर का आनंद है और हर दिन किसी न किसी तरीके से हर दिन को सफल बनाओ।
मैं यही आशा करता हूं कि आप हिम्मत रखेंगे और जैसे भी हो सके ये समय, ये गुजरे, धीरज रखो, ठीक है।
तो सभी लोगों को मेरा नमस्कार।